________________ 352] [प्रज्ञापनासूत्र ब्रह्मलोक कल्प की अपेक्षा से समझना चाहिए / ब्रह्मलोक के देव पद्मलेश्या वाले होते हैं और उनकी उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है / पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दोनों अन्तर्मुहूर्त एक ही अन्तमुहूर्त में समाविष्ट हो जाते हैं, इसी कारण यहाँ अन्तर्मुहूर्त अधिक कहा गया है। शुक्ललेश्यावान् का उत्कृष्ट काल-अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम कहा गया है। यह कथन अनुत्तरविमानवासी देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि उनमें शुक्ललेश्या होती है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है। अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए।' प्रलेश्य जीवों की कालावस्थिति–अलेश्य जीव अयोगीकेवली और सिद्ध होते हैं, वे सदाकाल लेश्यातीत रहते हैं / इसलिए अलेश्य अवस्था को सादि-अनन्त कहा गया है / नौवाँ सम्यक्त्वद्वार--- 1343. सम्म हिट्ठी णं भंते ! सम्मद्दिढि० केचिरं होइ ? गोयमा ! सम्मविट्ठी दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सादीए वा अपज्जवसिए 1 सादीए वा सपज्जवसिए 2 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहणणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं छावद्धि सागरोवमाई सातिरेगाई। [1343 प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि कितने काल तक सम्यग्दृष्टिरूप में रहता है ? [1343 उ.] गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--(१) सादिअपर्यवसित और (2) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहर्त्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक (सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि रूप में रहता है।) 1344. मिच्छद्दिट्ठी णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! मिच्छट्ठिी तिविहे पणत्ते / तं जहा-प्रणादोए वा अपज्जवसिए 1 प्रणाईए वा सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ गंजे से सादीए सपज्जवसिए से जहणणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं प्रणतं कालं, अणंतानो उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणोप्रो कालो, खेत्तो प्रवड्ढे पोग्गलपरियट देसूगं। [1344 प्र.] भगवन् ! मिथ्या दृष्टि कितने काल तक मिथ्यादृष्टिरूप में रहता है ? [1344 उ.] गौतम ! मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार-(१) अनादिअपर्यवसित, (2) अनादि-सपर्यवसित और (3) सादि-सपर्यवसित / इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक; (अर्थात्) काल की अपेक्षा से अनन्त 1. (क) 'पंचमियाए मिस्सा'। (ख) 'तईयाए मीसिया।' (ग) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 387 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 387 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org