________________ अठारहवां कायस्थितिपद 1 [ 353 उत्सर्पिणी-अवसपिणियों तक और क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त तक (मिथ्यादृष्टिपर्याय से युक्त रहता है / ) 1345. सम्मामिच्छद्दिट्ठी पं० पुच्छा ? गोयमा ! जहणण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं / दारं // [1345 प्र.] भगवन् ! सम्यमिथ्यादृष्टि कितने काल तक सम्यमिथ्यादृष्टि बना रहता है ? 1345 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक सम्यमिथ्यादृष्टिपर्याय में रहता है ! नौवाँ द्वार / / 6 / / विवेचन-नौवाँ सम्यक्त्वद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1343 से 1345 तक) में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि इन तीनों के स्व-स्वपर्याय को कालस्थिति का निरूपण किया गया है। सम्यग्दृष्टि की व्याख्या-जिसको दृष्टि सम्यक्, यथार्थ या अविपरीत हो अथवा जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व पर जिसको श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि सम्यक् हो, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं / सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के होते हैं सादि-अनन्त-जिसे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है, वह सादि-अनन्त सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि एक बार उत्पन्न होने पर क्षायिक सम्यक्त्व का विनाश नहीं होता। क्षायोपशमिक और प्रौपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि सादि-सान्त होता है, क्योंकि ये दोनों सम्यक्त्व अनन्त नहीं, सान्त हैं। प्रौपशमिक सम्यक्त्व अन्तमुहर्त तक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व छियासठ सागरोपम तक रहता है। इसी अपेक्षा से कहा गया है कि सादि-सान्त म्यग्दष्टि जघन्य अन्तमुहर्त तक सम्यग्दष्टिपर्याययुक्त रहता है, उसके पश्चात उसे मिथ्यात्व को प्राप्ति हो जाती है। यह कथन औपशमिक सम्यक्त्व की दृष्टि से है / उत्कृष्ट किंचित् अधिक 66 सागरोपम तक सम्यग्दृष्टि बना रहता है। यह कथन क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा से है / यदि कोई जीव दो बार विजयादि विमानों में सम्यक्त्व के साथ उत्पन्न हो अथवा तीन बार अच्युतकल्प में उत्पन्न हो तो छियासठ सागरोपम व्यतीत हो जाते हैं और जो किञ्चित् अधिक काल कहा है, वह बीच के मनूष्यभवों का समझना चाहिए।' त्रिविमिथ्यादृष्टि-(१) अनादि-अनन्त--जो अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि है और अनन्तकाल तक बना रहेगा, वह अभव्यजीव, (2) प्रनादि-सान्त—जो अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि तो है, किन्तु भविष्य में जिसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, (3) सादि-सान्त मिथ्यादृष्टि-जो सम्यक्त्व को प्राप्त करने के पश्चात् पुनःमिथ्यादृष्टि हो गया है और भविष्य में पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करेगा। इन तीनों में से जो सादि-सान्त मिथ्यादष्टि है, वह जघन्य अन्तमुहर्त तक मिथ्यादष्टि रहता है / अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यादृष्टि रहने के पश्चात् उसे पुन: सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है / उत्कृष्ट 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 387-388 (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका भा. 4, प्र. 420-421 (ग) "दो बारे विजयाइसु गयस्स तिग्निचए अहव ताई / अइरेगं नरभवियं.................................. " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org