________________ अठारहवां कायस्थितिपद] [ 357 तेतीस सागरोपम तक विभंगज्ञानी बना रहता है। जब कोई पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य अथवा देव सम्यग्दृष्टि होकर अवधिज्ञानी होता है और फिर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है, तब मिथ्यात्व की प्राप्ति के समय मिथ्यात्व के प्रभाव से उसका अवधिज्ञान विभंगज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्वप्राप्ति के अनन्तर समय में ही जब उस विभंगज्ञानी देव, मनुष्य या पंचेन्द्रियतिर्यंच की मृत्यु हो जाती है, तब विभंगज्ञान का अवस्थान एक समय तक ही रहता है। जब कोई मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रियतिथंच या मनुष्य करोड़ पूर्व की आयु के कतिपय वर्ष व्यतीत हो जाने पर विभंगज्ञान प्राप्त करता है और उक्त विभंगज्ञान के साथ ही सप्तम नरकभूमि में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में उत्पन्न होता है, उस समय विभंगज्ञानी का अवस्थानकाल देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम का होता है। तदनन्तर वह जीव या तो सम्यक्त्व को प्राप्त करके अवधिज्ञानी बन जाता है, अथवा उसका विभंगज्ञान नष्ट ही हो जाता है।' ग्यारहवाँ दर्शनद्वार 1354. चक्खुदसणी णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं / [1354 प्र.] भगवन् ! चक्षुर्दर्शनी कितने काल तक चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है ? {1354 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक (चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है)। 1355. अचक्खुदसणी णं भंते ! अचवखुदंसणी त्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! अचक्खुदंसणी दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–अणादीए वा अपज्जवसिए 1 अणादीए वा सपज्जवसिए 2 / [1355 प्र. भगवन् ! अचक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी रूप में कितने काल तक रहता है ? [1355 उ.] गौतम ! अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-१. अनादिअपर्यवसित और 2. अनादि-सपर्यवसित / 1356. प्रोहिदंसणो णं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो छावट्ठीनो सागरोवमाणं सातिरेगानो। [1356 प्र. भगवन् ! अवधिदर्शनी, अवधिदर्शनीरूप में कितने काल तक रहता है ? [1356 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो छियासठ सागरोपम तक (अवधिदर्शनीपर्याय में रहता है)। 1357. केवलदसणी णं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए / दारं 11 // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 390 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org