________________ 356 ] [प्रज्ञापनासूत्र द्विविध ज्ञानी----(१) सादि-अपर्यवसित-जिस जीव को सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् सदैव बना रहे, वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि ज्ञानी या केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित ज्ञानी है / (2) सादि. सपर्यवसित--जिसका सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन का अभाव होने पर नष्ट होने वाला है, वह सादिसपर्यवसित ज्ञानी है। केवलज्ञान के सिवाय अन्य ज्ञानों की अपेक्षा ऐसा ज्ञानी सादि-सपर्यवसित कहलाता है, क्योंकि वे ज्ञान नियतकालभावी हैं, अनन्त नहीं हैं। इन दोनों में से सादि-सान्त ज्ञानीअवस्था जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक रहती है, उसके पश्चात् मिथ्यात्व के उदय से ज्ञानपरिणाम का विनाश हो जाता है। उत्कृष्टकाल जो 66 सागरोपम से कुछ अधिक कहा गया है, उसका स्पष्टीकरण सम्यग्दृष्टि के समान ही समझ लेना चाहिए, क्योंकि सम्यग्दृष्टि ही ज्ञानी होता है।' अवधिज्ञानी का अवस्थानकाल---अवधिज्ञानी का जघन्य अवस्थानकाल एक समय का है, अन्तर्मुहूर्त का नहीं, क्योंकि विभंगज्ञानी कोई तिर्यंचपंचेन्द्रिय, मनुष्य अथवा देव जब सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तो सम्यक्त्व की प्राप्ति होते ही उसका विभंगज्ञान अवधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। किन्तु देव के च्यवन के कारण और अन्य जीव की मृत्यु होने पर या अन्य कारणों से अनन्तर समय में ही जब वह अवधिज्ञान नष्ट हो जाता है, तब उसका अवस्थान एक समय तक रहता है। इसकी उत्कृष्ट अवस्थिति 66 सागरोपम की है / वह इस प्रकार से है-अप्रतिपातीअवधिज्ञान प्राप्त जीव दो बार विजय आदि विमानों में जाता है, अथवा तीन बार अच्युतदेवलोक में उत्पन्न होता है, तब उसकी स्थिति छियासठ सागरोपम की होती है। मनःपर्यवज्ञानी का अवस्थानकाल-मन:पर्यवज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी-अवस्था में जघन्य एक समय तक रहता है। जब अप्रमत्त अवस्था में वर्तमानः किसी संयत को मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है और अप्रमत्तसंयत-अवस्था में ही उसको मृत्यु हो जाती है, तब वह मनःपर्यवज्ञानी एक समय तक ही मनःपर्यवज्ञानी के रूप में रहता है। उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि तक अवस्थिति का कारण यह है कि इससे अधिक संयम रहता ही नहीं है और संयम के अभाव में मनःपर्यवज्ञान भी रह नहीं सकता। त्रिविध प्रज्ञानी, मत्यज्ञानी तथा श्रुताज्ञानी-अनादि-अनन्त-जिसने कभी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किया है और जो भविष्य में भी ज्ञान प्राप्त नहीं करेगा, वह अनादि-अनन्त अज्ञानी है। (2) अनादि-सान्त--जिसने कभी ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, किन्तु कभी प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त अज्ञानी है। (3) सादि-सान्त-जो जीव सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके पुन: मिथ्यात्वोदय से अज्ञानी हो गया हो, किन्तु भविष्य में पुन: ज्ञान प्राप्त करेगा, वह सादि-सान्त अज्ञानी है। सादि-सान्त अज्ञानी लगातार जघन्य अन्तमुहूर्त तक अज्ञानी-पर्याय से युक्त रहता है, तत्पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त करके ज्ञानी बन जाता है, उसकी अज्ञानी-पर्याय नष्ट हो जाती है। उत्कृष्ट अनन्तकाल तक वह अज्ञानी रहता है, इसका कारण पहले कहा चुका है। इतने काल (अनन्त उत्सपिणी-अवसर्पिणीकाल) के अनन्तर उस जीव को अवश्य ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है और उसका अज्ञानपरिणाम दूर हो जाता है। विभंगज्ञानी का अवस्थानकाल–वह जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक --.-..-- - - - - - 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 389 2. वही, मलय. वत्ति, पत्रांक 389 3. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 389-390 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org