Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [351 1342. अलेसे पं० पुच्छा? गोयमा ! सादोए अपज्जवसिए / दारं 8 / / [1342 प्र.] भगवन् ! अलेश्यी जीव कितने काल तक अलेश्यीरूप में रहता है ? [1342 उ.] गौतम ! (अलेश्य-अवस्था) सादि-अपर्यवसित है / अष्टम द्वार / / 8 / / विवेचन–अष्टम लेश्याद्वार-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 1335 से 1342 तक) में सलेश्य, अलेश्य तथा कृष्णादि षट्लेश्या वाले जीवों का स्व-स्व-पर्याय में रहने का कालमान प्ररूपित किया गया है। द्विविध सलेश्य जीवों की कालावस्थिति-जो लेश्या से युक्त हों, वे सलेश्य कहलाते हैं / वे दो प्रकार के हैं—(१) अनादि अपर्यवसित-जो कदापि संसार का अन्त नहीं कर सकते, (2) अनादिसपर्यवसित-जो संसारपारगामी हों। लेश्याओं का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल-तिर्यञ्चों और मनुष्यों के लेश्याद्रव्य अन्तर्मुहर्त तक रहते हैं, उसके बाद अवश्य ही बदल जाते हैं। किन्तु देवों और नारकों के लेश्याद्रव्य पूर्वभव सम्बन्धी अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से प्रारम्भ होकर परभव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक स्थायी रहते हैं। इसलिए लेश्याओं का जघन्यकाल (अन्तर्मुहूर्त) सर्वत्र मनुष्यों और तिर्यञ्चों की अपेक्षा से तथा उत्कृष्ट काल देवों और नारकों की अपेक्षा से जानना चाहिए।' यहाँ उत्कृष्ट लेश्याकाल विभिन्न प्रकार का है। वह इस प्रकार है कृष्णलेश्यी का उत्कष्टकाल-.-कष्णलेश्या का उत्कष्टकाल अन्तमहत अधिक तेतीस सागरोपम का कहा है, वह सातवीं नरकभूमि की अपेक्षा से जानना चाहिए। क्योंकि सप्तम नरकपृथ्वी के नारक कृष्णलेश्या वाले होते हैं और उनकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है तथा पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दो अन्तर्मुहूर्त हैं, वे दोनों मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त ही होते हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के भी असंख्य भेद हैं। नीललेश्यो का उत्कृष्टकाल-पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम का है। यह लमान पांचवीं नरकपृथ्वी को अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि पांचवें नरक के प्रथम पाथड़े (प्रस्तट) में नीललेश्या होती है। उक्त पाथड़े में उपर्युक्त स्थिति होती है / पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दोनों अन्तमुहर्त पल्योपम के असंख्यातवें भाग में ही सम्मिलित हो जाते हैं। अतएव उनकी पृथक् विवक्षा नहीं की गई है। कापोतलेश्यो का उत्कृष्ट काल-पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम कहा गया है / वह तीसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि तीसरी नरकपृथ्वी के प्रथम पाथड़े में इतनी स्थिति है और उसमें कापोतलेश्या भी होती है। तेजोलेश्यी जीव का उत्कष्टकाल-पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम कहा गया है। यह ईशान देवलोक की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि ईशान देवलोक के देवों में तेजोलेश्या होती है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति भी यही है / पद्मलेश्यो जीव का उत्कृष्टकाल-अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम का कहा गया है / वह 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पृ. 386 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org