________________ 34] [ प्रज्ञापनासूत्र [1333 प्र.] भगवन् ! लोभकषायी, लोभकषायी के रूप में कितने काल तक (लगातार) रहता है ? [1333 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (लोभकषायी निरन्तर लोभकषायीपर्याय से युक्त रहता है।) 1334. अकसाई णं भंते ! अकसाई ति कालतो केवचिरं होइ? गोयमा ! प्रकसाई दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-सादीए वा अपज्जवसिए 1 सादीए वा सपज्जवसिए 2 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसणं अंतोमुहत्तं / दारं 7 // {1334 प्र.] भगवन् ! अकषायी, अकषायी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1334 उ.] गौतम ! अकषायी दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) सादिअपर्यवसित और (2) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (अकषायीरूप में रहता है।) सप्तम द्वार / / 7 / / विवेचन—सप्तम कषायद्वार-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 1331 से 1334 तक) में सकषायी, अकषायी तथा क्रोधादिकषायी के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थित रहने का कालमान बताया गया है। त्रिविध सकषायी की व्याख्या-जो जीव कषायसहित होता है, वह सकषायी कहलाता है / कषाय जीव का एक विकारी परिणाम है। सकषायी जीव तीन प्रकार के होते हैं--(१) अनादिअनन्त-जो जीव उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी को कदापि प्राप्त नहीं करेगा, वह अनादि-अनन्त सकषायी है, क्योंकि उसके कषाय का कभी विच्छेद नहीं हो सकता / (2) अनादि-सान्त-जो जीव कभी उपशमश्रेणी या क्षयकश्रेणी को प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त सकषायो है, क्योंकि उपशम पकश्रेणी प्राप्त करने पर ग्यारहवें गणस्थान में या बारहवें गुणस्थान में उसके कषायोदय का विच्छेद हो जाता है। (3) सादि-सान्त--जो जीव उपशमश्रेणी प्राप्त करके और अकषायी होकर पुन: उपशमश्रेणी से प्रतिपतित होकर सकषायी हो जाता है, वह सादि-सान्त सकषायी कहलाता है। क्योंकि उसके कषायोदय की आदि भी है और भविष्य में पुनः कषायोदय का अन्त भी हो जाएगा। इनमें जो सादि-सान्त सकषायी है, वह जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक निरन्तर सकषायी रहता है। इस विषय में अनन्तकाल का काल और क्षेत्र की दृष्टि से परिमाण और तद्विषयक युक्ति सवेदी की तरह समझनी चाहिए। क्रोध-मान-मायाकषायी की कालावस्थिति-क्रोध, मान और माया कषाय से युक्त जीव निरन्तर क्रोधादि कषायों के रूप में अन्तमदत तक ही रहते हैं. क्योंकि क्रोधादि किसी एक कषाय का उदय (विशिष्ट उपयोग) कम से कम और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकता है / जीव का स्वभाव ही ऐसा है कि क्रोधादि कषाय का उदय अन्तर्मुहर्त के अधिक नहीं रहता / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 386 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयवोधिनी टीका भाग 4, पृ. 404 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org