________________ [प्रज्ञापनासूत्र पर्याय प्राप्त करके, तत्पश्चात् नीचे गिर कर एक समय तक स्त्रीवेद का अनुभव करे, पुनः दूसरे समय में काल करके देवों में उत्पन्न हो जाए। वहाँ बह जीव पुरुषवेदी होता है, स्त्रीवेदी नहीं। इस प्रकार स्त्रीवेदी का जघन्यकाल एक समय मात्र सिद्ध हो जाता है / (1) प्रथम प्रादेशानुसार-उत्कृष्टत: पृथक्त्वकोटिपूर्व अधिक एक सौ दस पल्योपम कालमान का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-कोई जीव करोड़ पूर्व की आयुवाली स्त्रियों में या तिर्यंचनियों में पांच-छह भव करके ईशान कल्प में पचपन पल्योपम की आयु की उत्कृष्ट स्थिति बाली अपरिगहीता देवियों में देवी रूप में उत्पन्न हो और आयु का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर पूनः कोटिपर्व की आयु वाली स्त्रियों में अथवा तिर्यंचनियों में स्त्रीरूप में उत्पन्न हो, उसके पश्चात पुनः दूसरी बार ईशानकल्प में पचपन पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली परिगृहीता देवियों में देवीरूप में उत्पन्न हो उसके पश्चात् तो उसे अवश्य ही दूसरे वेद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम तक निरन्तर स्त्रीवेदी का स्त्रीवेदपर्याय से युक्त होना सिद्ध होता है। (2) द्वितीय प्रादेशानुसार-पूर्वकोटिपथक्त्व-अधिक प्रठारह पल्योपम का स्पष्टीकरणकोई जीव पूर्ववत् करोड़पूर्व की आयु वाली नारियों या तिर्यंचनियों में पांच-छह भवों का अनुभव करके पूर्वोक्त प्रकार से दो बार ईशानदेवलोक में उत्कृष्ट स्थिति वाली देवियों में उत्पन्न हो, वह भी परिगृहीता देवियों में उत्पन्न हो, अपरिगृहीता देवियों में नहीं। ऐसी स्थिति में स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट कालस्थिति लगातार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम की सिद्ध होती है / (3) तृतीय प्रादेशानुसार-उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व-अधिक चौदह पल्योपम कालमान का -कोई जीव सौधर्मदेवलोक में सात पल्योपम की उत्कृष्ट प्राय वाली परिगहीता देवियों में दो बार उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो बार देवीभवों के चौदह पल्योपम और नारियों या तिर्यंचनियों के भवों के कोटिपूर्वपृथक्त्व अधिक, स्त्रीवेदी का अस्तित्व होने से स्त्रीवेदी की निरन्तर कालावस्थिति कोटिपूर्वपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम तक सिद्ध होती है। (4) चतुर्थ प्रादेशानुसार-पूर्वकोटिपृथक्त्व-अधिक सौ पल्योपम कालमान का स्पष्टीकरणकोई जीव सौधर्म देवलोक में 50 पल्योपम को उत्कृष्ट प्राय वाली अपरिगहीता देवियों में पूर्वोक्त प्रकार से दो बार देवी रूप में उत्पन्न हो, तो स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति लगातार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम की सिद्ध हो जाती है। (5) पंचम आदेशानुसार-उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व कालमान का स्पष्टीकरण-नाना भवों में भ्रमण करते हुए कोई भी जीव अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक से अधिक पल्योपमपृथक्त्व तक ही लगातार स्त्रीवेदी रह सकता है, इससे अधिक नहीं, क्योंकि पूर्वकोटि की आयु वाली नारियों में या तिर्यञ्चनियों में सात भवों का अनुभव करके आठवें भव में देवकुरु आदि क्षेत्रों में तीन पल्योपम की स्थिति वाली स्त्रियों में स्त्रीरूप से उत्पन्न हो, तत्पश्चात् काल करके सौधर्मदेवलोक में जघन्य स्थिति वाली देवियों में देवीरूप से उत्पन्न हो तो तदनन्तर अवश्य ही वह जीव दूसरे वेद को प्राप्त हो जाता है / इस दृष्टि से स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट स्थिति लगातार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व सिद्ध हो जाती है।' 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति., पत्रांक 384-385 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org