________________ अठारहवाँ कम्यस्थितिपद ] [347 प्रवेदक जीव की स्थिति-अवेदक जीव दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादिसपर्यवसित / जो जीव क्षपकश्रेणी को प्राप्त करके अबेदी हो जाता है, वह सादि-अपर्यवसित अवेदी कहलाता है, क्योंकि ऐसा जीव फिर कभी सवेदी नहीं हो सकता। जो जीव उपशमश्रेणी को प्राप्त करके अवेदक होता है, वह सादि-सपर्यवसित कहलाता है, क्योंकि उसकी अवेद-अवस्था की प्रादि भी है और गिर कर नौवें गुणस्थान में आने पर अन्त भी हो जाता है / इनमें से जो सादि-सपर्यवसित अवेदक है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर अवेदक रहता है, क्योंकि जो जीव एक समय तक अवेदक रह कर दूसरे ही समय में मर कर देवगति में जन्म लेता है, वह पुरुषवेद का उदय होने से सवेदक हो जाता है / इस कारण यहाँ अवेदक का कालमान जघन्य एक समय कहा है / उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहने का कारण यह है कि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् श्रेणी से पतित होने पर उसके वेद का उदय हो जाता है / नपुंसकवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति-नपुसकवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति वनस्पतिकाल तक अर्थात-अनन्तकाल तक की बताई है, उसका कारण यह है कि वनस्पति के जीव नसकवेदी होते हैं, और उनका काल अनन्त है।' सातवाँ कषायद्वार 1331. सकसाई णं भंते ! सकसाईति कालमो केवचिरं होइ ? / गोयमा ! सकसाई तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--प्रणादीए वा अपज्जवसिए 1 प्रणादीए वा सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 जाव (सु. 1326) प्रवड्ढे पोग्गलपरियट देसूणं / [1331 प्र.] भगवन् ! सकषायी जीव कितने काल तक सकषायीरूप में रहता है ? [1331 उ.] गौतम ! सकषायी जीव तीन प्रकार के कहे हैं / वे इस प्रकार--(१) अनादिअपर्यवसित. (2) अनादि-सपर्यवसित और (3) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जोस है, उसका कथन सू. 1326 में उक्त सादि-सपर्यवसित सवेदक के कथनानुसार यावत् क्षेत्रत: देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त तक (करना चाहिए।) 1332. कोहकसाई णं भंते ! कोहकसाई त्ति पुच्छा? . गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / एवं जाव मायकसाई / [1332 प्र.] भगवन् ! क्रोधकषायी क्रोधकषायीपर्याय से युक्त कितने काल तक रहता है ? [1332 उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः भी और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त तक (क्रोधकषायी रूप में रहता है / ) इसी प्रकार यावत् (मानकषायी और) मायाकषायी (की कालावस्थिति कहनी चाहिए। 1333. लोभकसाई णं भंते ! लोभ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुत्तं / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 385 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 4, पृष्ठ 399-400 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org