________________ अठारहवा कायस्थितिपद ] [ 341 विवेचन--चतुर्थ कायद्वार-प्रस्तुत छत्तीस सूत्रों (सू. 1285 से 1320 तक) में षट्काय के विभिन्न पर्यायों की अपेक्षा से कायस्थिति (उस रूप में लगातार कालावधि) की प्ररूपणा की गई है। सकायिक की व्याख्या-जो कायसहित हो, वह सकायिक कहलाता है। यद्यपि काय के पांच भेद हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण; तथापि यहाँ तैजस और कार्मण काय ही समझना चाहिए, क्योंकि ये दोनों संसार-पर्यन्त रहते हैं, अन्यथा विग्रहगति में वर्तमान एवं शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव के तैजस और कार्मण के सिवाय अन्य शरीर नहीं होते / ऐसी स्थिति में वह जीव अकायिक हो जाएगा और मूलसूत्रोक्त संसारी और संसारपारगामी, ये दो भेद नहीं बनेंगे / मूल में सकायिक के दो भेद बताए हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / जो संसारपारगामी नहीं होगा, वह अभव्य अनादि-अनन्त-सकायिक है, क्योंकि उसके काय का व्यवच्छेद कदापि सम्भव नहीं / जो मोक्षगामी है, वह अनादि-सान्त है, क्योंकि वह मुक्ति अवस्था में सर्वात्मना सर्वशरीरों से रहित हो जाता है। यों षट्काय की दृष्टि से भी पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक तथा सकायिक, ये छह भेद हैं।' असंख्यातकाल की व्याख्या-कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल जानना चाहिए। क्षेत्रतः असंख्यात लोक समझने चाहिए। अभिप्राय यह है कि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश है। ऐसे-ऐसे (कल्पित) असंख्यात लोकाकाशों के समस्त प्रदेशों में से एक-एक समय में एक-एक प्रदेश के क्रम से अपहरण किया जाए तो जितनी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी उस अपहरण में व्यतीत हों, उतनी ही उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी यहाँ समझना चाहिए। सारांश यह है कि अधिक से अधिक इतने काल तक सूक्ष्म जीव निरन्तर सूक्ष्म पर्याय में बना रहता है। यह प्ररूपणा सांव्यवहारिक जीवराशि की अपेक्षा से समझनी चाहिए। अव्यवहारराशि के अन्तर्गत सूक्ष्मनिगोदिया जीव की अनादिता होने से उसमें असंख्यातकाल का कथन सुसंगत नहीं हो सकता। क्षेत्र को अपेक्षा से अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग की व्याख्या---इसका अभिप्राय यह है कि अंगुल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उनका एक-एक समय में एक-एक के हिसाब से अपहरण करने पर जितनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी व्यतीत हों, उतनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी यहाँ जानना चाहिए। प्रश्न होता है-अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने स्वल्प क्षेत्र के परमाणनो का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणी एवं अवपिणी काल किस प्रकार व्यतीत हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि क्षेत्र, काल की अपेक्षा बहुत सूक्ष्म होने से ऐसा हो सकता है / कहा भी है-काल सूक्ष्म होता है, किन्तु क्षेत्र उससे भी अधिक सूक्ष्म होता है / यह कथन बादर वनस्पतिकाय की अपेक्षा से है, क्योंकि बादर वनस्पतिकाय के अतिरिक्त अन्य किसी बादर को इतने काल को स्थिति संभव नहीं है / 3 / पंचम योगद्वार 1321. सजोगी णं भंते ! सजोगि त्ति कालमो केवचिरं होइ ? 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 379 2. (क) बही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 382 (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी भा. 4, पृ. 374 3. (क) वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 382 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. 4, पृ. 377 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org