________________ 342] [ प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! सजोगी दुविहे पण्णते। तं जहा-अणादीए वा अपज्जयसिए 1 प्रणादीए वा सपज्जवसिए 2 / [1321 प्र.] भगवन् ! सयोगी जीव कितने काल तक सयोगीपर्याय में रहता है ? [1321 उ.] गौतम ! सयोगी जीव दो प्रकार के कहे हैं। वे इस प्रकार-१. अनादि-अपर्यवसित और 2. अनादि-सपर्यवसित / 1322. मणजोगी णं भंते ! मणजोगि त्ति कालो केवचिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / [1322 प्र.] भगवन् ! मनोयोगो कितने काल तक मनोयोगो अवस्था में रहता है ? [1322 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी अवस्था में रहता है। 1323. एवं वयजोगी वि। [1323] इसी प्रकार वचनयोगी (का वचनयोगी रूप में रहने का काल समझना चाहिए / ) 1324. कायजोगी णं भंते ! कायजोगि ति? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो। [1324 प्र.] भगवन् ! काययोगी, काययोगी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1324 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक (वह काययोगीपर्याय में रहता है।) 1325. अजोगी गं भंते ! प्रजोगीति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा! सादीए अपज्जवसिए / वारं 5 // [1325 प्र.] भगवन् ! अयोगी, अयोगीपर्याय में कितने काल तक रहता है ? [1325 उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित (अनन्त) है। पंचमद्वार / / 5 / / विवेचन--पंचम योगद्वार-प्रस्तुत पाँच सूत्रों (सू. 1321 से 1325 तक) में सयोगी, मनोवचन-काययोगी और अयोगी की स्व-स्वपर्याय में रहने को कालस्थिति सम्बन्धी प्ररूपणा की गयी है। ___ योग और सयोगी-अयोगों-मन, वचन और काय का व्यापार योग कहलाता है / वह योग जिसमें विद्यमान हो, वह सयोगी कहलाता है। जैनसिद्धान्त की दृष्टि से सयोगो-अवस्था तेरहवें गुणस्थानपर्यन्त रहती है / उसके पश्चात् चौदहवें गुणस्थान में जीव अयोगी हो जाता है / सिद्ध-अवस्था भो अयोगी अवस्था है. जिसको आदि तो है, पर अन्त नहीं है, क्योंकि सिद्धावस्था प्राप्त होने के बाद योगों से सर्वथा छुटकारा हो जाता है। सयोगी जीव के दो भेद-अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त / जो जोव भविष्य में कभी मोक्ष प्राप्त नहीं करेगा, सदैव कम से कम एक योग से युक्त बना रहेगा, ऐसा अभय जोव अनादि-अनन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org