________________ अठारहवां फायस्थितिपद] [333 1284. पंचेंदियपज्जत्तए णं भंते ! पंचेंदियपज्जत्तए ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं / दारं 3 // [1284 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तरूप में कितने काल तक रहता है ? [1284 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहर्त तक और उत्कृष्ट सौ पृथक्त्व सागरोपमों तक (पंचेन्द्रियपर्याप्त-पर्याय में रहता है।) तृतीयद्वार // 3 // विवेचन-तृतीय इन्द्रियद्वार-प्रस्तुत 14 सूत्रों (सू. 1271 से 1284 तक) में सेन्द्रिय, निरिन्द्रिय तथा पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों की उस पर्याय में अवस्थिति के विषय में निरूपण किया गया है। सेन्द्रिय-निरिन्द्रिय-इन्द्रिययुक्त जीव को सेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रिय रहित जीव (सिद्ध) को निरिन्द्रिय कहते हैं। सेन्द्रिय जीव की सेन्द्रियपर्याय में अवस्थिति-सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गए हैं-अनादिअनन्त और अनादि-सान्त / जो सेन्द्रिय है, वह नियमत: संसारी होता है और संसार अनादि है / जो सिद्ध हो जाएगा, वह अनादि-सान्त है। क्योंकि मुक्ति-अवस्था में सेन्द्रियत्व पर्याय का अभाव हो जाएगा / जो कदापि सिद्ध नहीं होगा, वह अनादि-अनन्त है। क्योंकि उसके सेन्द्रियत्वपर्याय का भी अन्त नहीं होगा। अनिन्द्रिय-पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषण से रहित हैं / सेन्द्रिय जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के हैं / जो अपर्याप्तक हैं, वे लब्धि और करण की अपेक्षा से समझने चाहिये। दोनों प्रकार से उनकी पर्याय जघन्यतः और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहर्त प्रमाण है तथा पर्याप्त यहाँ लब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए। वह विग्रहगति में भी संभव है, भले ही वह करण से अपर्याप्त हो / अतएव वह उत्कृष्टतः सौ सागरोपम पृथक्त्व अर्थात् दो सौ से नौ सौ सागरोपम से कुछ अधिक काल में सिद्ध हो जाता है / अन्यथा करणपर्याप्त का काल तो अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम प्रमाण ही है / अतः पूर्वोक्त कथन सुसंगत नहीं होगा। इसलिए यहाँ और आगे भी लब्धि की अपेक्षा से ही पर्याप्तत्व समझना चाहिए।' बनस्पतिकाल का प्रमाण-कालतः अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल; क्षेत्रतः अनन्तलोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्त और वे पुद्गलपरावर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग समझना चाहिए / अर्थात् प्रावलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने पुद्गलपरावर्त यहाँ समझना चाहिए। संख्यातकाल का तात्पर्य-द्वीन्द्रिय की अवस्थिति संख्यातकाल की बताई है, उसका अर्थ संख्यात वर्ष, यानी संख्यात हजार वर्ष का काल / पंचेन्द्रिय का काल-कुछ अधिक हजार सागरोपम तक पंचेन्द्रिय जीव लगातार पंचेन्द्रिय बना रहता है / यह काल नारक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति इन चारों में भ्रमण करने से होता है / 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 377-378 2. वहीं, मलय. वृत्ति, पत्रांक 377 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org