________________ अठारहवां कायस्थितिपद] [337 1266. तसकाइयपज्जत्तए णं 0 पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं / [1266 प्र.] भगवन् ! सकायिक-पर्याप्तक कितने काल तक सकायिकपर्याय में बना रहता है ? [1266 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम-पृथक्त्व तक (वह पर्याप्त त्रसकायिक रूप में रहता है / ) 1300. सुहमे णं भंते ! सुहमे त्ति कालो केवचिरं होति ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं असंखेज्जायो उस्सप्पिणीप्रोसप्पिणीमो कालो, खेत्तनो प्रसंखेज्जा लोगा। [1300 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म रूप में रहता है ? [1300 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहुर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक, (अर्थात् ) कालत: असंख्यात उत्सपिणी अवपिणियों तक प्रो में बना रहता है।) 1301. सुहुमपुढविक्काइए सुहुमनाउक्काइए सुहुमतेउक्काइए सुहुमवाउक्काइए सुहुमवणप्फइकाइए सुहमणिगोदे वि जहणणं अंतोमुत्तं, उक्कोसणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जायो उस्सप्पिणिप्रोसप्पिणोप्रो कालो, खेत्तनो असंखेज्जा लोगा। [1301] इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्म निगोद भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक-(अर्थात्-) कालत:-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवपिणियों तक एवं क्षेत्रतः असंख्यात लोक तक (ये स्व-स्वपर्याय में बने रहते हैं / 1302. सुहमे णं भंते ! अपज्जत्तए त्ति * पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [1302 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक रूप में कितने काल तक लगातार रहता है ? [1302 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। 1303. पुढविक्काइय-प्राउक्काइय-तेउक्काइय-वाउक्काइय-वणस्सइकाइयाण य एवं चेव / [1303] (सूक्ष्म) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक (अपर्याप्तक की कायस्थिति के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए।) 1304. पज्जत्तयाण वि एवं चेव / _[1304] (इन पूर्वोक्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि के) पर्याप्तकों (के विषय में भी) ऐसा हो (समझना चाहिए।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org