________________ अठारहवां कायस्थितिपद] [335 [1287] इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक भी (जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक अपने-अपने पर्यायों से युक्त रहते हैं / ) 1288. वणप्फइकाइया णं 0 पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंतायो उस्सपिणि प्रोसप्पिणीयो कालो, खेत्तनो अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते गं पोग्गलपरियट्टा प्रावलियाए असंखेज्जइभागे। _[1288 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव कितने काल तक लगातार वनस्पतिकायिक पर्याय में रहते हैं ? [1288 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहर्त तक, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक (वे) वनस्पतिकायिक पर्याययुक्त बने रहते हैं / (वह अनन्तकाल) कालत:-~-अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी परिमित एवं क्षेत्रतः अनन्त लोक प्रमाण या असंख्यात पुद्गलपरावर्त समझना चाहिए / वे पुद्गलपरावर्त प्रावलिका के असंख्यातवें भाग-प्रमाण हैं / 1286. तसकाइए गं भंते ! तसकाइए त्ति 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं. उक्कोसेणं दो सागरोबमसहस्साई संखेज्जवासप्रभइयाइं। [1286 प्र.] भगवन् ! बसकायिक जीव त्रसकायिकरूप में कितने काल तक रहता है ? [1289 उ.गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम तक (त्रसकायिकरूप में लगातार बना रहता है।) 1260. अकाइए गं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! अकाइए सादीए अपज्जवसिए / [1260 प्र.] भगवन् ! अकायिक कितने काल तक प्रकायिकरूप में बना रहता है ? [1290 उ.] गौतम ! अकायिक सादि-अनन्त होता है। 1261. सकाइयअपज्जत्तए णं 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [1291 प्र.] भगवन् ! सकायिक अपर्याप्तक कितने काल तक सकायिक अपर्याप्तक रूप में लगातार रहता है ? [1291 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (सकायिक अपर्याप्तक रूप में लगातार रहता है।) 1292. एवं जाव तसकाइयनपज्जत्तए। [1292] इसी प्रकार (अप्कायिक अपर्याप्तक से लेकर) यावत् त्रसकायिक अपर्याप्तक तक समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org