Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अठारहवां कायस्थितिपद] 1266. मणूसे मणूसी वि एवं चेव / _ [1266] (पर्याप्त) मनुष्य (नर) और मानुषो (मनुष्यस्त्रो) को कायस्थिति के विषय में भी इसी प्रकार (समझना चाहिए / ) 1270. [1] देवपज्जत्तए जहा रइयपज्जत्तए (सु. 1267) / [1270-1] पर्याप्त देव (की कायस्थिति) के विषय में (मू. 1267 में अंकित) पर्याप्त नैरयिक (की कायस्थिति) के समान (समझना चाहिए।) [2] देविपज्जत्तिया गंभंते ! देविपज्जत्तिय त्ति कालो केचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहत्तणाई, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमाइं अंतोमुत्तूणाई / दारं 2 // [1270-2 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त देवी, पर्याप्त देवी के रूप में कितने काल तक रहती है ? [1270-2 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहुर्त कम दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचपन पल्योपम तक पर्याप्त देवी-पर्याय में रहती है। द्वितीय द्वार / / 2 / / विवेचन-प्रथम-द्वितीय जीवद्वार-गतिद्वार-प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 1260 से 1270) में जीवसामान्य की तथा नारकादि चार गति वाले विशष्ट जीवों की कायस्थिति का निरूपण किया गया है। जीव में सदैव निरन्तर जीवनपर्याय क्यों और कैसे ?–जीव सदा काल जीवनपर्याय से युक्त रहता है, क्योंकि जीव वही कहलाता है, जो जोवनपर्याय से: विशिष्ट हो / जीवन का अर्थ है-प्राण धारण करना। प्राण दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यप्राण और भावप्राण / द्रव्यप्राण दस हैं-५ इन्द्रियाँ, तीन बल, उच्छ्वास-नि:श्वास और आयु / भावप्राण-ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख, ये 4 हैं / संसारी जीवों में आयु:कर्म का अनुभवरूप प्राणधारण सदैव रहता है। संसारियों की ऐसी कोई भी अवस्था नहीं है, जिसमें आयुकर्म का अनुभव न हो। सिद्ध जीव द्रव्यप्राणों से रहित होने पर भी ज्ञानादिरूप भावप्राणों के सदभाव से सदैव जीवित रहता है। इस कारण संसारी अवस्था में प्रौर मुक्तावस्था में भी सर्वत्र जीवनपर्याय है, अतएव जीव में जीवनपर्याय सर्वकालभावी है। गति की अपेक्षा जीवों की कायस्थिति-नारक की कास्थितिजघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट 33 सागरोपम तक नारक नारकपर्याय से युक्त रहता है / यही नारक को कायस्थिति है / क्योंकि नारकभव का स्वभाव ही ऐसा है कि एक बार नरक से निकला हुआ जीव अगले ही भव में फिर नरक में उत्पन्न नहीं होता। इस कारण उनकी जो भवस्थिति का परिमाण है, वही उनकी कायस्थिति का परिमाण है। तिर्यञ्च नर की कायस्थिति-इसकी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक की कायस्थिति इसलिए है कि जब कोई देव, मनुष्य या नारक तिर्यंचयोनिक नर के रूप में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्त-पर्यन्त रह कर फिर देव, मनुष्य या नारक भव में जन्म ले लेता है, उस अवस्था में जघन्य कायस्थिति अन्तमुहूर्त को होती है। यद्यपि तिर्यञ्च की एकभवसम्बन्धी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org