________________ 33.] [ प्रज्ञापनासून स्थिति तो अधिक से अधिक तीन पल्योपम की है, उससे अधिक नहीं, तथापि जो तिर्यञ्च तिर्यञ्चभव को त्याग कर लगातार तिर्यञ्चभव में ही उत्पन्न होते रहते हैं, बीच में किसी अन्य भव में उत्पन्न नहीं होते, वे अनन्तकाल तक तिर्यञ्च ही बने रहते हैं। उस अनन्तकाल का परिमाण यहाँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से बताया गया है-काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सपिणियाँ और प्रवसपिणियाँ व्यतीत हो जाती हैं, फिर भी तिर्यञ्चयोनिक तिर्यञ्चयोनिक ही बना रहता है / उस अनन्तकाल का यह परिमाण असंख्यात पुद्गलपरावर्तन समझना चाहिए। आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने असंख्यात पुद्गलपरावर्त समझने चाहिए। तिर्यग्योनिक की यह कायस्थिति वनस्पतिकायिक की अपेक्षा से है, उससे भिन्न तिर्यञ्चों की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि वनस्पतिकायिक के सिवाय अन्य तिर्यंचों की कायस्थिति इतनी नहीं होती। तिर्यंचयोनिक स्त्री की कायस्थिति-इसकी कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त तक को और उत्कृष्ट पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम तक की है, क्योंकि संज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यचों और मनुष्यों की कायस्थिति अधिक से अधिक आठ भवों की है / असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव मृत्यु के पश्चात् अवश्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं, तिर्यंचयोनि में नहीं; अतएव सात भव करोड़ पूर्व की आयु वाले समझना चाहिए और पाठवाँ अन्तिम भव देवकुरु आदि में / इस तरह पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम समझना चाहिए। देव देवियों को कायस्थिति-देवों और देवियों की कायस्थिति भवस्थिति के अनुसार ही समझनी चाहिए / देवियों की उत्कृष्ट काय स्थिति पचपन पल्योपम की है, यह ऐशान देवियों की अपेक्षा से कही गयी है, अन्य देवियों की अपेक्षा से नहीं / सिद्धजीव की कायस्थिति सादि-अनन्त-सिद्ध जीव सादि-अनन्त होता है। सिद्धपर्याय की आदि है, अन्त नहीं। सिद्धपर्याय अक्षय है / रागादि दोष ही जन्ममरण के कारण हैं, जो सिद्ध-जीव में नहीं होते; क्योंकि रागद्वेष के कारणभूत कर्मों का वे सर्वथा क्षय कर चुकते हैं / अपर्याप्त नारक प्रादि को कायस्थिति-नारक आदि जीव अपर्याप्त नारक रूप में जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, क्योंकि अपर्याप्त अवस्था अन्तर्मुहर्त से अधिक काल तक नहीं रहती / अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् पर्याप्त अवस्था प्रारम्भ हो जाती है। पर्याप्त नारक प्रादि को कायस्थिति -नारक आदि जीवों की जो समग्र स्थिति है, उसमें से अपर्याप्त अवस्था का एक अन्तमुहूर्त कम कर देने से पर्याप्त अवस्था की भवस्थिति होती है। पर्याप्त अवस्था की जो भवस्थिति है, वही पर्याप्त नारक की कायस्थिति भी है।' तृतीय इन्द्रियद्वार 1271. सइंदिए णं भंते ! सइंदिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सइंदिए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-प्रणाईए वा अपज्जवसिए 1 अणादीए वा सपज्जवसिए 2 // [1271 प्र.] भगवन् ! सेन्द्रिय (इन्द्रिय सहित) जीव सेन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 375 से 377 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org