________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [ 281 1167. पंचेदियतिरिवखजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं सम्मुच्छिमाणं गम्भवक्कंतियाण य सर्वोस भाणियव्वं जाव अप्पिढिया वेमाणिया देवा तेउलेस्ला, सम्वमाहिड्ढिया वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा। [1197] इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, तिर्यञ्चस्त्रियों, सम्मूच्छिमों और गर्भजों-सभी की कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्यापर्यन्त यावत् वैमानिक देवों में जो तेजोलेश्या वाले हैं, वे सबसे अल्पद्धिक हैं और जो शुक्ललेश्या वाले हैं, वे सबसे महद्धिक हैं, (यहाँ तक अल्पद्धिकता-महद्धिकता का कथन करना चाहिए / ) 1168. केइ भणंति-चउवीसदंडएणं इड्ढी भाणियत्वा / // बीग्रो उद्देसनो समत्तो॥ [1198] कई आचार्यों का कहना है कि चौवोस दण्डकों को लेकर ऋद्धि का कथन करना चाहिए। विवेचन–सलेश्य सामान्यजीवों तथा चौवीस दण्डकों में अल्पद्धिकता-महद्धिकता-विचारप्रस्तुत आठ सूत्रों (1191 से 1198 तक) में कृष्णादिलेश्याविशिष्ट सामान्यजीवों और चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की अल्पद्धिकता और महद्धिकता का विचार प्रस्तुत किया गया है। निष्कर्ष पूर्व-पूर्व की लेश्या बाले अल्पद्धिक हैं और क्रमशः उत्तरोत्तर लेश्या वाले महद्धिक हैं। इसी प्रकार नारकों, तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों के विषय में, जिनमें जितनी लेश्याओं की प्ररूपणा की गई, उनमें उनका विचार करके अनुक्रम से अल्पद्धिकता और महद्धिकता समझ लेनी चाहिए। प्रकायिकों से चतुरिन्द्रिय जीवों तक-इनमें जो कृष्णलेश्या वाले हैं, वे सबसे कम ऋद्धि वाले हैं और तेजोलेश्या वाले सबसे महाऋद्धि वाले हैं। इसी प्रकार सर्वत्र कह लेना चाहिए।' // सत्तरहवां लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 252 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org