Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 306 ] [ प्रज्ञापनासूत्र जामुन के फल की तरह काली (स्वादिष्ट वस्तु) हो, या उत्तम प्रसन्ना नाम की मदिरा हो, (जो) अत्यन्त स्वादिष्ट हो, प्रचुर रस से युक्त हो, रमणीय हो, (अतएव आस्वादयुक्त होने से) झटपट अोठों से लगा ली जाए (अर्थात् जो मुखमाधुर्यकारिणी हो तथा) जो पीने के पश्चात् (इलायची, लौंग आदि द्रव्यों के मिश्रण के कारण) कुछ तीखी-सी हो, जो आँखों को ताम्रवर्ण की बना दे तथा उत्कृष्ट मादक (मदप्रापक) हो, जो प्रशस्त वर्ण, गन्ध और स्पर्श से युक्त हो, जो आस्वादन करने योग्य हो, विशेष रूप से आस्वादन करने योग्य हो, जो प्रीणनीय (तृप्तिकारक) हो, बृहणीय–वृद्धिकारक हो, उद्दीपन करने वाली, दर्पजनक, मदजनक तथा सभी इन्द्रियों और शरीर (गात्र) को पालादजनक हो, इनके रस के समान पदमलेश्या का रस (आस्वाद) होता है ? [प्र.] भगवन् ! क्या पद्मलेश्या के रस का स्वरूप ऐसा ही होता है ? / [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / पद्मलेश्या तो स्वाद (रस) में इससे भी इष्टतर यावत् अत्यधिक मनाम कही है। 1238. सुक्कलेस्सा णं भंते ! केरिसिया अस्साएणं पण्णत्ता? गोयमा ! से जहाणामए गुले इ वा खंडे इ वा सक्करा इ वा मच्छंडिया इ वा पप्पडमोदए इ वा भिसकंदे इ वा पुप्फुत्तरा इ वा पउमुत्तरा इ वा प्रापंसिया इ वा सिद्धत्थिया इ वा प्रागासफालिप्रोवमा इ वा अणोवमाइ वा। भवेतारूवा? गोयमा ! जो इणठे समठे, सुक्कलेस्सा णं एत्तो इट्टतरिया चेव कंततरिया चेव पियतरिया चेव मणामयरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता। [1238 प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या स्वाद में कैसी है ? [1238 उ.[ गौतम ! जैसे कोई गुड़ हो, खांड हो, या शक्कर हो, या मिश्री हो, (अथवा मत्स्यण्डी (खांड से बनी शक्कर) हो, पर्पटमोदक (एक प्रकार का मोदक अथवा मिश्री का पापड़ और लडड) हो, भिस(विस)कन्द हो, पुष्पोत्तर नामक मिष्ठान्न हो, पद्मोत्तरा नाम की मिठाई (सन्देश?) नामक मिठाई हो, या सिद्धाथिका नाम की मिठाई हो, आकाशस्फटिकोपमा नामक मिठाई हो, अथवा अनुपमा नामक मिष्टान्न हो; (इनके स्वाद के समान शुक्ललेश्या का स्वाद (रस) है।) [प्र.] भगवन् क्या शुक्ललेश्या स्वाद में ऐसी होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। शुक्ललेश्या आस्वाद में इनसे भी इष्टतर, अधिक कान्त (कमनीय), अधिक प्रिय एवं अत्यधिक मनोज्ञ-मनाम कही गई है। विवेचन-तृतीय रसाधिकार-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 1233 से 1238 तक) में छहों लेश्याओं के रसों का पृथक-पृथक् विविध वस्तुओं के रसों की उपमा देकर निरूपण किया गया है।' 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 365-366 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org