________________ 304 ] [प्रज्ञापनासूत्र [प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या रस से इसी रूप की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। कृष्णलेश्या स्वाद में इन (उपर्युक्त वस्तुओं के रस) से भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अतिशय अमनाम है। 1234. गोललेस्सा पुच्छा। गोयमा ! से जहाणामए भंगी ति वा भंगीरए इ वा पाढा इ वा चविता इ वा चित्तामूलए इ वा पिप्पलीमूलए इ वा पिप्पलो इ वा पिपलिचुण्णे इ वा मिरिए इ वा मिरियचुण्णे इ वा सिंगबेरे इ वा सिंगबेरचुण्णे इ वा। भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणठे समठे, गोललेस्सा णं एत्तो जाव प्रमणामतरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता। [1234 प्र.] भगवन् ! नीललेश्या आस्वाद में कैसी है ? [1234 उ.] गौतम ! जैसे कोई भूगी (एक प्रकार की मादक वनस्पति) हो, अथवा भगी (वनस्पति) का कण (रज) हो, या पाठा (नामक वनस्पति) हो, या चविता हो अथवा चित्रमूलक (वनस्पात) हो, या पिप्पलीमूल (पीपरामूल) हो, या पीपल हो, अथवा पीपल का चर्ण हो, (मिर्च हो, या मिर्च का चूरा हो, शृगबेर (अदरक) हो, या शृगबेर (सूखी अदरक = सोंठ) का चूर्ण हो; (इन सबके रस के समान चरपरा (तिक्त) नीललेश्या का आस्वाद (रस) कहा गया है / ) [प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या रस से इसी रूप की होती है ? उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। नीललेश्या रस (आस्वाद) में इससे भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अत्यधिक अमनाम (अवांछनीय) कही गयी है। 1235. काउलेस्साए पुच्छा। गोयमा ! से जहाणामए अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलुगाण वा बिल्लाण वा कविट्ठाण वा भट्टाण' वा फणसाण वा दालिमाण वा पारेवयाण वा अक्खोडाण वा पोराण वा बोराण वा तेंदुयाण वा अपक्काणं अपरियागाणं वण्णेणं अणुक्वेताणं गंधेण अणुववेयाणं फासेणं अणुववेयाणं / भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणठे समठे, जाव एत्तो अमणामरिया चेव काउलेस्सा अस्साएणं पण्णत्ता। [1235 प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या आस्वाद में कैसी है ? [1235 उ.] गौतम ! जैसे कोई प्राम्रो का, आम्राटक के फलों का, बिजौरों का, बिल्वफलों (बेल के फलों) का, कवीठों का, भट्ठों का, पनसों (कटहलों) का, दाडिमों (अनारों) का, 1. पाठान्तर—'भट्ठाण' के बदले श्रीजीवविजयकृत स्तबक में 'मच्चाण' पाठान्तर है, अर्थ किया गया है-भर्च वृक्ष के फल तथा श्री धनविमलगणिकृत स्तबक में "भवाण' पाठान्तर है, जिसका अर्थ किया गया है--प्रपक्व जैसी द्राक्षा। -सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org