Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 310 ] [ प्रज्ञापनासूत्र कृष्णादि लेश्याएँ असंख्यात प्रदेशावगाढ़-यहाँ प्रदेश का अर्थ आकाश प्रदेश है. क्योंकि अवगाहन आकाश के प्रदेशों में ही होता है। यद्यपि एक-एक लेश्या की वर्गणाएँ अनन्त-अनन्त हैं, तथापि उन सबका अवगाहन असंख्यात अाकाश प्रदेशों में ही हो जाता है, क्योंकि सम्पूर्ण लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश हैं। __ कृष्णादिलेश्याएँ अनन्त वर्गणायुक्त-औदारिक शरीर आदि के योग्य परमाणुओं के समूह के समान कृष्णलेश्या के योग्य परमाणुओं के समूह को कृष्णलेश्या की वर्गणा कहा गया है। ये वर्गणाएँ वर्णादि के भेद से अनन्त होती हैं।' कृष्णादिलेश्याओं के प्रसंख्यात स्थान-लेश्यास्थान कहते हैं-प्रकर्ष-अपकर्षकृत अर्थात् अविशुद्धि और विशुद्धि की तरतमता से होने वाले भेदों को। जब भावरूप कृष्णादि लेश्याओं का चिन्तन किया जाता है, तब एक-एक लेश्या के प्रकर्ष-अपकर्ष कृत स्वरूपभेदरूप स्थान, काल की अपेक्षा से ----असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों के समयों के बराबर हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सेअसंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर स्थान अर्थात्-विकल्प हैं। कहा भी है-असंख्यात उत्सपिणियों और अवसपिणियों के जितने समय होते हैं, अथवा असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हों, उतने ही लेश्याओं के स्थान (विकल्प) हैं। किन्तु विशेषता यह है कि कृष्णादि तीन अशुभ भावलेश्याओं के स्थान संक्लेशरूप होते हैं और तेजोलेश्यादि तीन शुभ भावलेश्याओं के स्थान विशुद्ध होते हैं। __ इन भावलेश्याओं के कारणभूत द्रव्यसमूह भी स्थान कहलाते हैं। यहां उन्हीं को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इस उद्देशक में कृष्णादिलेश्याद्रव्यों का ही प्ररूपण किया गया है। वे स्थान प्रत्येक लेश्या के असंख्यात होते हैं / तथाविध एक ही परिणाम के कारणभूत अनन्त द्रव्य भी एक हो प्रकार के अध्यवसाय के हेतु होने से स्थूल रूप से एक ही कहलाते हैं। उनमें से प्रत्येक के दो भेद हैं-जघन्य और उत्कृष्ट / जो जघन्य लेश्यास्थानरूप परिणाम के कारण हों, वे जघन्य और उत्कृष्ट लेश्यास्थानरूप परिणाम के कारण हों, वे उत्कृष्ट कहलाते हैं। जो जघन्य स्थानों के समीपवर्ती मध्यम स्थान हैं, उनका समावेश जघन्य में और जो उत्कृष्टस्थानों के निकटवर्ती हैं, उनका अन्तर्भाव उत्कृष्ट में हो जाता है। ये एक-एक स्थान, अपने एक ही मूल स्थान के अन्तर्गत होते हुए भी परिणाम-गुण-भेद के तारतम्य से असंख्यात हैं / आत्मा में जघन्य एक गुण अधिक, दो गुण अधिक लेश्याद्रव्यरूप उपाधि के कारण असंख्य लेश्या-परिणामविशेष होते हैं। व्यवहारदृष्टि से वे सभी अल्पगुण वाले होने से जघन्य कहलाते हैं / उनके कारणभूत द्रव्यों के स्थान भी जघन्य कहलाते हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थान भी असंख्यात समझ लेने चाहिए।' पन्द्रहवाँ : अल्पबहुत्वाधिकार 1247. एतेसि णं भंते ! कण्हलेस्साठाणाणं जाव सुक्कलेस्साठाणाण य जहण्णगाणं दन्वयाए पएसट्टयाए दवट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरेहितो प्रप्पा वा 4 ? गोयमा! सम्वत्थोवा जहण्णमा काउलेस्साठाणा दग्वटुयाए, जहण्णगा णीललेस्साठाणा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जणगा कण्हलेस्साठाणा दवढयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा तेउलेस्स 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 368 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 369 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org