________________ 316] {प्रज्ञापनासूत्र 1255. से पूर्ण भंते ! सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव परिणमति ? हंता गोयमा ! सुक्कलेस्सा तं चेव / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति सुक्कलेस्सा जाव णो परिणमति ? गोयमा ! प्रागारभावमाताए वा जाव सुक्कलेस्सा णं सा, णो खलु सा पम्हलेस्सा, तत्थ गता भोसक्कति, सेएणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ जाव णो परिणमति / लेस्सापदे पंचमो उद्देसनो समत्तो।। [1255 प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या, पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में यावत् (उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में पुनः पुनः) परिणत नहीं होतो ? [1255 उ.] हाँ, गौतम ! शुक्ललेश्या पद्मलेश्या को पा कर उसके स्वरूप में परिणत नहीं होती, इत्यादि सब वही (पूर्ववत् कहना चाहिए।) [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि शुक्ललेश्या (पद्मले श्या को प्राप्त होकर) यावत् (उसके स्वरूप में तथा उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में) परिणत नहीं होती : [उ.] गौतम ! आकारभावमात्र से अथवा प्रतिविम्बमात्र से यावत् (वह शुक्ललश्या पद्मलेश्या-सी प्रतीत होती है), वह (वास्तव में) शुक्ललेश्या ही है, निश्चय ही वह पद्मलेश्या नहीं होती / शुक्ललेश्या वहाँ (स्वस्वरूप में) रहती हुई अपकर्ष (हीनभाव) को प्राप्त होती है / इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् (शुक्ललेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में) परिणत नहीं होती। विवेचन-लेश्यानों के परिणामभाव की प्ररूपणा–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 1251 से 1255 तक) में एक लेश्या का दूसरी लेश्या को प्राप्त कर उसके स्वरूप में परिणत होने का निषेध किया गया है। पूर्वापर विरोधी कथन कैसे और क्या समाधान ? यहाँ अाशंका होती है कि पूर्व सूत्रों (सू. 1220 से 1225 चतुर्थ उद्देशक, परिणामाधिकार) में कृष्णादि लेश्याओं को, नीलादि लेश्याओं के स्वरूप में तथा उनके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में परिणत होने का विधान किया गया है, परन्तु यहाँ उनके तद्रूप-परिणमन का निषेध किया गया है। ये दोनों कथन पूर्वापर विरोधी हैं / इसका क्या समाधान ? वृत्तिकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि पहले परिणमन का जो विधान किया गया है, वह तिर्यचों और मनुष्यों की अपेक्षा से है और इन सूत्रों में परिणमन का निषेध किया गया है, वह देवों और नारकों की अपेक्षा से है। इस प्रकार दोनों कथन विभिन्न अपेक्षाओं से होने के कारण पूर्वापरविरोधी नहीं हैं। देव और नारक अपने पूर्वभवगत अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से लेकर अागामी भव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक उसी लेश्या में अवस्थित होते हैं / अर्थात्उनकी जो लेश्या पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में थी, वही वर्तमान देवभव या नारकभव में भी कायम रहती है और आगामी भव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त में भी रहती है। इस कारण देवों और नारकों के कृष्णलेश्यादि के द्रव्यों का परस्पर सम्पर्क होने पर भी वे एक-दूसरे को अपने स्वरूप में परिणत नहीं करते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org