Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सत्तरहवां लेश्यापद : पंचम उद्देशक ] [315 उसके वर्णरूप में, न उसके गन्धरूप में, न उसके रसरूप में पोर न उसके स्पर्शरूप में वार-बार परिणत होती है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नोललेश्या को प्राप्त होकर, न तो उसके स्वरूप में यावत् (न उसके वर्ग-गध-रस-सशंरूप में) बार-बार परिणत होती है ? उ.] गौतम ! वह (कृष्णलेश्या) प्राकार भावमात्र से हो, अथवा प्रतिभाग भावमात्र (प्रतिविम्बमात्र) से (नीललेश्या) होती है। (वास्तव में) यह कृष्णलेश्या हो (रहती) है, वह नीललेश्या नहीं हो जाती। वह (कृष्णलेश्या) वहाँ रहो हुई उत्कर्ष को प्राप्त होती है, इसी हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वरूप में, यावत् (न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस स्पर्शरूप में) बारबार परिणत होती है। 1253. से णणं भंते ! गोललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा ! णोललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ णोललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणति ? गोयमा ! प्रागारभावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए वा सिया गोललेस्सा णं सा, णो खलु सा काउलेस्सा, तत्थ गता उस्तक्कति वा प्रोसक्कति वा, सेएणठेगं गोयमा! एवं वुच्चइ पोललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति / [1253 प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वरूप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में) बार-बार परिणत होती है ? [1253 उ.] हाँ, गौतम ! नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न उसके स्वरूप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में) बारबार परिणत होती है / प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न उसके स्वरूप में, यावत् पुनः पुनः परिणत होती है ? [उ.] गौतम ! वह (नीललेश्या) आकारभावमात्र से हो, अथवा प्रतिविम्बमात्र से (कापोतलेश्या) होती है, (वास्तव में) वह नीललेश्या ही (रहती) है; वास्तव में वह कापोतलेश्या नहीं हो जाती / वहाँ रही हुई (वह नीललेश्या) घटती-बढ़ती रहती है / इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न तो तद्रप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में) बारबार परिणत होती है। 1254. एवं काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेसं पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेम्सं पप्प / [1254] इसी प्रकार कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर (उसो के स्वरूप में, अर्थात्-वर्ण-गन्धरस-स्पर्शरूप में परिणत नहीं होती, ऐसा पूर्वयुक्तिपूर्वक समझना चाहिए / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org