________________ सत्तरसमं लेस्सापयं : पंचमो उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : पंचम उद्देशक लेश्यानों के छह प्रकार 1250. कति णं भंते लेस्सानो पण्णत्तानो ? गोयमा ! छल्लेसानो पण्णत्तानो / तं जहा-कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। [1250 प्र.] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? {1250 उ.] गौतम ! लेश्याएं छह हैं -कृष्णलश्या यावत् शुक्ललश्या / लेश्याओं के परिणामभाव की प्ररूपणा 1251. से णणं भंते ! कण्हलेस्सा णोललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? एत्तो आढत्तं जहा चउत्थुद्देसए तहा भाणियन्वं जाव वेरुलियमणिदिवेंतो ति / [1251 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के स्वरूप में, उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में पुन: पुन: परिणत हो जाती है ? [1251 उ.] यहाँ से प्रारम्भ करके यावत् वैडूर्यमणि के दृष्टान्त तक जैसे चतुर्थ उद्देशक में कहा है, वैसे ही कहना चहिए। 1252. से गूणं भंते ! कण्हलेस्सा णोललेस्सं पप्प णो तारूवताए णो तावण्णत्ताए णो तागंधत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए णो तावण्णत्ताए णो तागंपत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भज्जो भुज्जो परिणमति / से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! प्रागारमावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए वा से सिया कण्हलेस्सा णं सा, णो खलु सा णीललेस्सा, तत्थ गता उस्सक्कति से तेणठेणं गोयमा! एवं बच्चति कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? [1252 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर नीललेश्या के स्वभावरूप में तथा उसी के वर्णरूप में, गन्धरूप में, रसरूप में एवं स्पर्शरूप में बार-बार परिणत नहीं होती है ? [1252 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वभावरूप में, न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org