________________ सत्तरहयाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] हैं। (5) दो सौ तेतालीस भेद-उनके पुन: तीन-तीन भेद करने पर 243 भेद होते हैं / इस प्रकार उत्तरोत्तर भेद-प्रभेद किये जाएँ तो बहुत और बहुत प्रकार के परिणमन कृष्णलेश्या के होते हैं / ऐसे ही परिणामों के प्रकार शुक्ललेश्या तक समझ लेने चाहिए।' ग्यारहवें प्रदेशाधिकार से चौदहवें स्थानाधिकार तक को प्ररूपणा 1243. कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिपदेसिया पण्णता ? गोयमा ! प्रणंतपदेसिया पण्णत्ता / एवं जाव सुक्कलेस्सा / [1243 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या कितने प्रदेश वाली है ? [1243 उ.] गौतम ! (कृष्णलेश्या) अनन्तप्रदेशों वाली है (क्योंकि कृष्णलेश्यायोग्य परमाणु अनन्तानन्त संख्या वाले हैं ) / इसी प्रकार (नीललेश्या से) यावत् शुक्ललेश्या तक (प्रदेशों का कथन करना चाहिए।) 1244. कण्हलेस्सा णं भंते ! कइपएसोगाढा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जपएसोगाढा पण्णत्ता / एवं जाव सुक्कलेस्सा / [1244 प्र. भगवन् ! कृष्ण लेश्या आकाश के कितने प्रदेशों में अवगाढ है ? [1244 उ.] गौतम ! (कृष्णलेश्या) असंख्यात अाकाश प्रदेशों में अवगाढ है। इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक असंख्यात प्रदेशावगाढ समझनी चाहिए। 1245. कण्हलेस्साए णं भंते ! केवतियाप्रो वगणाप्रो पण्णताओ? गोयमा ! अणंतानो वग्गणाप्रो पण्णत्ताप्रो / एवं जाव सुक्कलेस्साए / [1245 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या की कितनी वर्गणाएं कही गई हैं ? [1245 उ.] गौतम ! (उसकी) अनन्त वर्गणाएँ कही गई हैं। इसी प्रकार यावत् शुक्ललेश्या तक की (वर्गणाओं का कथन करना चाहिए / ) 1246. केवतिया णं भंते ! कण्हलेस्साठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा कण्हलेस्साठाणा पण्णता / एवं जाव सुक्कलेस्साए / [1246 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या के स्थान (तर-तमरूप भेद) कितने कहे गये हैं ? [1246 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या के असंख्यात स्थान कहे गए हैं। इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक (के स्थानों की प्ररूपणा करनी चाहिए / ) विवेचन-ग्यारहवें प्रदेशाधिकार से चौदहवें स्थानाधिकार तक की प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों में प्रदेश, प्रदेशावगाढ़, वर्गणा और स्थान की प्ररूपणा की गई है। कष्णादि लेश्याएँ अनन्तप्रादेशिकी-कृष्णादि छहों लेश्याओं में से प्रत्येक के योग्य परमाणु अनन्त-अनन्त होने से उन्हें अनन्तप्रादेशिकी कहा है / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 368 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org