Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सत्तरहवां लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] चतुर्थ गन्धाधिकार से नवम गति अधिकार तक का निरूपण 1236. कति णं भंते ! लेस्सायो दुब्भिगंधारो पण्णत्तानो ? गोयमा ! तो लेस्सानो दुन्भिगंधानो पण्णत्ताओ। तं जहा-किण्हलेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा। [1236 प्र.] भगवन् ! दुर्गन्ध वाली कितनी लेश्याएँ हैं ? [1236 उ. ] गौतम ! तीन लेश्याएँ दुर्गन्धवाली हैं / वे इस प्रकार-कृष्णलेश्या, नोललेश्या और कापोतलेश्या। 1240. कति णं भंते ! लेस्सायो सुब्भिगंधानो यण्णतायो ? गोयमा! तो लेस्साम्रो सुन्भिगंधानो पण्णत्तायो। तं जहा–तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा। [1240 प्र.] भगवन् ! कितनी लेश्याएँ सुगन्ध वाली हैं ? [1240 उ.] गौतम ! तीन लेश्याएँ सुगन्ध वाली हैं / वे इस प्रकार-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। 1241. एवं तमो अविसुद्धामो तओ विसुद्धामो, तो अप्पसत्थानो तो पसत्थानो, तो संकिलिट्ठामो तमो असंकिलिलामो, तो सीयलुक्खायो तो निधण्हाप्रो, तो दुग्गइगामिणीयो तो सुगइगामिणीओ। [1241] इसी प्रकार (पूर्ववत् क्रमश:) तीन (लेश्याएँ) अविशुद्ध और तीन विशुद्ध हैं, तीन अप्रशस्त हैं और तीन प्रशस्त हैं, तीन संक्लिष्ट हैं और तीन असंक्लिष्ट हैं, तीन शीत और रूक्ष (स्पर्श वाली) हैं, और तीन उष्ण और स्निग्ध (स्पर्श वाली) हैं, (तथैव) तीन दुर्गतिगामिनी (दुर्गति में ले जाने वाली) हैं और तीन सुगतिगामिनी (सुगति में ले जाने वाली) हैं। विवेचन-चौथे गन्धाधिकार से नौवें गति अधिकार तक की प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1236 से 1241 तक) में तीन-तीन दुर्गन्धयुक्त-सुगन्धयुक्त लेश्याओं का, अविशुद्ध-विशुद्ध का, अप्रशस्त-प्रशस्त का, संक्लिष्ट-प्रसंक्लिष्ट का, शीत-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध स्पर्शयुक्त का, दुर्गतिगामिनीसुगतिगामिनी का निरूपण किया गया है। ४-गन्धद्वार–प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ मृतमहिष आदि के कलेवरों से भी अनन्तगुणी दुर्गन्ध वाली हैं तथा अन्त की तीन लेश्याएँ पीसे जाते हुए सुगन्धित वास एवं सुगन्धित पुष्पों से भी अनन्त गुणी उत्कृष्ट सुगन्ध वाली होती हैं।' 1. तुलना-जह गोमडस्स गंधो नागमडस्स व जहा अहिमडस्स ! एतो उ अणंतगुणो लेस्साणं अपसस्थाणं // 1 // जहा सुरभिकुसुमगंधो गंधवासाण पिस्समाणाण / एतो उ अणंतगुणो पसत्थलेस्साण तिण्ह पि // 2 // --उत्तराध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org