________________ 308] [प्रज्ञापनासूत्र 5. अविशुद्ध-विशुद्ध द्वार-प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली होने से अविशुद्ध और अन्त की तीन लेश्याएँ प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली होने से विशुद्ध होती हैं। 6. अप्रशस्त-प्रशस्तद्वार-आदि की तीन लेश्याएँ अप्रशस्त होती हैं, क्योंकि वे अप्रशस्त द्रव्यरूप होने के कारण अप्रशस्त अध्यवसाय की तथा अन्त की तीन लेश्याएँ प्रशस्त होती है, क्योंकि वे प्रशस्त द्रव्यरूप होने से प्रशस्त अध्यवसाय की निमित्त होती हैं। 7. संक्लिष्टाऽसंक्लिष्ट द्वार-प्रथम की तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट होती हैं, क्योंकि वे संक्लेशमय पार्तध्यान-रौद्रध्यान के योग्य अध्यवसाय को उत्पन्न करती तथा अन्तिम तीन लेश्याएँ असंक्लिष्ट हैं, क्योंकि वे धर्मध्यान के योग्य अध्यवसाय को उत्पन्न करती हैं। 8. स्पर्श-प्ररूपणाधिकार-प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ शीत और रूक्ष स्पर्श वाली हैं, इनके शीत और रूक्ष स्पर्श चित्त में अस्वस्थता उत्पन्न करने के निमित्त हैं, जबकि अन्त की तीन लेश्याएँ उष्ण और स्निग्ध स्पर्श वाली हैं। इनके उष्ण और स्निग्ध स्पर्श चित्त में सन्तोष उत्पन्न करने के निमित्त होते हैं / यद्यपि लेश्याद्रव्यों के कर्कश आदि स्पर्श प्रागे कहे गए हैं, परन्तु यहाँ उन्हीं स्पों का कथन किया गया है, जो चित्त में अस्वस्थता-स्वस्थता पैदा करने में निमित्त बनते हैं / 6. दुर्गति-सुगति द्वार-प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट अध्यवसाय की कारण होने से दुर्गति में ले जाने वाली हैं, जबकि अन्तिम तीन प्रशस्त अध्यवसाय की कारण होने से सुगति में ले जाने वाली हैं।' दशम परिणामाधिकार 1242. कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिविधं परिणाम परिणमति ? गोयमा ! तिविहं वा नबविहं वा सत्तावीसतिविहं था एक्कासीतिविहं वा बेतेयालसतविहं वा बहुं वा बहुविहं वा परिणामं परिणमति / एवं जाव सुक्कलेसा। [1242 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या कितने प्रकार के परिणाम में परिणत होती है ? 11242 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या तीन प्रकार के, नौ प्रकार के, सत्ताईस प्रकार के, इक्यासी प्रकार के या दो सौ तेतालीस प्रकार के अथवा बहुत-से या बहुत प्रकार के परिणाम में परिणत होती है। कृष्णलेश्या के परिणामों के कथन की तरह नीललेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक के परिणामों का भी कथन करना विवेचन-दसवाँ परिणामाधिकार-प्रस्तुत सूत्र में कृष्णादि छहों लेश्याओं के विभिन्न प्रकार के परिणामों से परिणत होने की प्ररूपणा की गई है। परिणामों के प्रकार (1) तीन-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट परिणाम / (2) नौ-इन तीनों में से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद करने से नौ प्रकार का परिणाम होता है। (3) सत्ताईस-इन्हीं नौ में प्रत्येक के पुन: तीन-तीन भेद करने पर 27 भेद हो जाते हैं / (4) इक्यासी-इन्हीं 27 भेदों के फिर वे ही जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट भेद करने पर इक्यासी प्रकार हो जाते 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 367 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org