________________ सत्तरहवा लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] [ 305 पारावत नामक फलों का, अखरोटों का, प्रौढ़----बड़े बेरों का, बेरों का या तिन्दुकों के फलों का, जो कि अपक्व हों, पूरे पके हुए न हों, वर्ण से रहित हों, गन्ध से रहित हों और स्पर्श से रहित हों; (इनके आस्वाद-रस के समान कापोतलेश्या का रस (स्वाद) कहा गया है / ) [प्र.] भगवन् ! क्या कापोतलेश्या रस से इसी प्रकार की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / कापोतलेश्या स्वाद में इनसे भी अनिष्टतर यावत् अत्यधिक अमनाम कही है। 1236. तेउलेस्सा णं पुच्छा? गोयमा ! से जहाणामए अंबाण वा जाव तेंदुयाण वा पक्काणं परियावण्णाणं वण्णेणं उक्वेताणं पसत्थेणं जाव फासेणं जाव एत्तो मणामयरिया चेव तेउलेस्सा प्रस्साएणं पण्णता। [1236 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या आस्वाद में कैसी है ? [1236 उ.] गौतम ! जैसे किन्हीं अाम्रों के यावत् (पाम्राटकों से लेकर) तिन्दुकों तक के फल जो कि परिपक्व हों, पूर्ण परिपक्व अवस्था को प्राप्त हों, परिपक्व अवस्था के प्रशस्त वर्ण से, गन्ध से और स्पर्श से युक्त हों, (इनका जैसा स्वाद होता है, वैसा ही तेजोलेश्या का है।) [प्र.] भगवन् ! क्या तेजोलेश्या इस आस्वाद की होती है ? [उ.[ गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। तेजोलेश्या तो स्वाद में इनसे भी इष्टतर यावत् अधिक मनाम होती है। 1237. पम्हलेस्साए पुच्छा ? गोयमा! से जहाणामए चंदप्पभा इ वा मणिसिलागाइ वा बरसीधू इ वा बरवारुणी ति वा पत्तासवे इ वा पुष्फासवे इ वा फलासवे इ वा चोयासवे इ वा पासवे इ वा मधू इ वा मेरए इ वा कविसाणए इ वा खज्जूरसारए इ वा मुद्दियासारए इ का सपक्कखोयरसे इ वा अपिट्टणिट्टिया इ वा जंबूफलकालिया इ वा वरपसण्णा इ वा आसला मासला पेसला ईसी प्रोटावलंबिणी ईसि वोच्छेयकडुई ईसी तंबच्छिकरणी उक्कोसमयपत्ता वण्णणं उववेया जाव फासेणं प्रासायणिज्जा वीसायणिज्जा पीणणिज्जा विहणिज्जा दीवणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सविदिय-गायपल्हाणिज्जा / भवेतारूवा? गोयमा! णो इणठे समठे, पम्हलेस्सा णं एत्तो इद्रुतरिया चेव जाव भणामतरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता। [1237 प्र. भगवन् ! पद्मलेश्या का प्रास्वाद कैसा है ? [1237 उ.] गौतम ! जैसे कोई चन्द्र प्रभा नामक मदिरा, मणिशलाका मद्य, श्रेष्ठ सीधु नामक मद्य हो, उत्तम बारुणी (मदिरा) हो, (धातकी के) पत्तों से बनाया हुआ आसव हो, पुष्पों का पासव हो, फलों का आसव हो, चोय नाम के सुगन्धित द्रव्य से बना पासव हो, अथवा सामान्य आसव हो, मधु (मद्य) हो, मैरेयक या कापिशायन नामक मद्य हो, खजूर का सार हो, द्राक्षा (का) सार हो, सुपक्व इक्षुरस हो, अथवा (शास्त्रोक्त) अष्टविध पिष्टों द्वारा तैयार की हुई वस्तु हो, या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org