________________ सत्तरहवा लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] कृष्णलेश्या के लिए अनिष्टतर प्रादि पांच विशेषण क्यों ? --कृष्णलेश्या वर्षारम्भकालीन काले कजरारे मेघ आदि उल्लिखितःकाली वस्तुओं से भी अधिक अनिष्ट होती है, यह बताने के लिए कृष्णलेश्या के लिए अनिष्टतर:विशेषण का प्रयोग किया गया है। किन्तु कस्तूरी जैसी कोई-कोई वस्तु अनिष्ट (काली) होने पर भी कान्त (कमनीय) होती है, परन्तु कृष्णलेश्या ऐसी भी नहीं है / यह बताने हेतु कृष्णलेश्या के लिए अकान्ततर (अत्यन्त अकमनीय) विशेषण का प्रयोग किया गया है। कोई वस्तु अनिष्ट और अकान्त होने पर भी किसी को प्रिय होती है, किन्तु कृष्णलेश्या प्रिय भी नहीं होती, यह बताने हेतु कृष्णलेश्या के लिए अप्रियतर (अत्यन्त अप्रिय) विशेषण प्रयोग किया गया है / इसी कारण कृष्णलेश्या अमनोजतर (अत्यन्त अमनोज्ञ) होती है। वास्तव में उसके स्वरूप का सम्यक परिज्ञान होने पर मन उसे किंचित् भी उपादेय नहीं मानता। कड़वी औषध जैसी कोई वस्तु अमनोज्ञतर होने पर भी मध्यमस्वरूप होती है किन्तु कृष्णलेश्या सर्वथा अमनोज्ञ है; यह अभिव्यक्त करने के लिए उसके लिए 'अमनामतर' (सर्वथा अवांछनीय) विशेषण का प्रयोग किया गया है।' __ इसी प्रकार नीललेश्या और कापोतलेश्या के लिए शास्त्रकार ने इन्हीं पांच विशेषणों का प्रयोग किया है / जबकि अन्त की तीन लेश्याओं के लिए इनसे ठीक विपरीत 'इष्टतर' आदि पांच विशेषणों का प्रयोग किया गया है। 'साहिज्जंति' पद का अर्थ-कही जाती है, प्ररूपित की जाती हैं / 2 तृतीय रसाधिकार 1233. कण्हल स्सा णं भंते ! केरिसिया प्रासाएणं पण्णता? गोग्रमा! से जहाणामए णिबे इ वा बिसारे इ वा णिबछल्लो इ वा णिबफाणिए इ वा कुडए इ वा कुडगफले इ वा कुडगछल्लो इ वा कुडगफाणिए इ वा कडुगतुंबी इ वा कडुगतुम्बीफले ति वा खारतउसी इ वा खारत उसीफले इ वा देवदालो इ वा देवदालिपुष्फे इ वा मियवालुकी इवा मियवालुकोफले इ वा घोसाडिए इ वा घोसाडइफले इ वा कण्हकंदए इ वा वज्जकंदए इ वा / भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणठे समठे, कण्हलेस्सा गं एत्तो प्रणितरिया चेव जाव प्रमणामयरिया चेव प्रस्साएणं पण्णत्ता। [1233 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या आस्वाद (रस) से कैसी कही है.? [1233 उ.] गौतम ! जैसे कोई नीम हो, नीम का सार हो, नीम की छाल हो, नीम का क्वाथ (काढा) हो, अथवा कुटज हो, या कुटज का फल हो, अथवा कुटज की छाल हो, या कुटज का क्वाथ (काढ़ा) हो, अथवा कड़वी तुम्बी हो, या कटुक तुम्बीफल (कड़वा तुम्बा) हो, कड़वी ककड़ी (त्रपुषी) हो, या (कड़वी ककड़ी का फल हो, अथवा देवदाली (रोहिणी) हो या देवदाली (रोहिणी) का पुष्प हो, या मृगवालुको हो अथवा मृगवालुकी का फल हो, या कड़वी घोषातिकी हो, अथवा कड़वी घोषातिको का फल हो, या कृष्णकन्द हो, अथवा वज्रकन्द हो; (इन वनस्पतियों के कटु रस के समान कृष्णलेश्या का रस (स्वाद) कहा गया है / ) 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 362 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 363 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org