________________ 284] [प्रज्ञापनासून 1203. [1] से जूणं भंते ! कण्हलेसे पुढविक्काइए कण्हलेस्सेसु पुढविक्काइएसु उववज्जति ? कण्हलेस्से उन्वट्टति ? जल्लेसे उववज्जति तल्लेसे उन्वट्टति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्से पुढविक्काइए कण्हलेस्सेसु पुढधिक्काइएसु उववज्जति ; सिए कण्हलेस्से उन्वट्टति, सिय नोललेसे उब्वट्टति, सिय काउलेसे उध्वतिसिय जल्लेसे उव्वज्जइ तल्लेसे उव्वदृति / {1203-1 प्र.] भगवन् / क्या कृष्णलेश्या वाला पृथ्वीकायिक कृष्णलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? तथा क्या कृष्णलेश्या वाला हो कर (वहाँ से) उद्वर्तन करता है ? जिस लेश्या वाला हो कर उत्पन्न होता है, (क्या) उसी लेश्या वाला हो कर (वहां से) उद्वर्तन करता (मरता) है ? [1203-1 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या वाला पृथ्वीकायिक कृष्णलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, (किन्तु) उद्वर्तन (मरण) कदाचित् कृष्णलेश्या वाला हो कर, कदाचित् नीललेश्या वाला हो कर और कदाचित् कापोतलेश्या वाला होकर करता है। (अर्थात्) जिस लेश्या वाला हो कर उत्पन्न होता है, कदाचित् उस लेश्या वाला हो कर उद्वर्तन करता है। और (कदाचित् अन्य लेश्यावाला होकर मरण करता है।) [2] एवं गोललेस्सा काउलेस्सा वि / [1203-2] इसी प्रकार नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले (पृथ्वीकायिक के उत्पाद और उद्वर्तन के सम्बन्ध में) भी (समझ लेना चाहिए।) [3] से गूणं भंते ! तेउलेस्से पुढविक्काइए तेउलेस्सेसु पुढविक्काइएसु उववज्जइ ? * पुच्छा / हंता गोयमा ! तेउलेसे पुढविकाइए तेउलेसेसु पुढविक्काइएसु उववज्जति; सिय कण्हलेसे उवट्टइ, सिय गीललेसे उब्वट्टइ, सिय काउलेसे उव्वदृति; तेउलेसे उववज्जति, णो चेव णं तेउलेस्से उन्वट्टति / [1203-3 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या वाला पृथ्वीकायिक क्या तेजोलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तेजोलेश्या वाला हो कर ही उद्वर्तन करता है ? , (इत्यादि पूर्ववत्) पृच्छा / [1203-3 उ.] हाँ, गौतम ! तेजोलेश्या वाला पृथ्वीकायिक तेजोलेश्या वाले पृथ्वी कायिकों में ही उत्पन्न होता है, (किन्तु) उद्वर्तन कदाचित् कृष्णलेश्या वाला हो कर, कदाचित् नीललेश्या वाला हो कर, कदाचित् कापोतलेश्या वाला होकर करता है, (वह) तेजोलेश्या से युक्त हो कर उत्पन्न होता है, (परन्तु) तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वर्त्तन नहीं करता / [4] एवं प्राउक्काइय-वणप्फइकाइया वि। [1203-4] अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों की (उत्पाद-उद्वर्तनसम्बन्धी) वक्तव्यता भी इसी प्रकार (पृथ्वीकायिकों के समान) समझनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org