Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 29 0] [ प्रज्ञापनासूत्र एक में रहने वाले धर्म की अपेक्षा समुदाय का धर्म कहीं अन्य प्रकार का भी देखा जाता है / इसी पाशंका के निवारणार्थ जिनमें जितनी लेश्याएँ सम्भव हैं, उनकी उतनी सब लेश्याओं को एक साथ लेकर पूर्वोक्त विषय सामूहिकरूप से पुनः सूत्रबद्ध किया गया है।' कृष्णादिलेश्या वाले नैरयिकों में अवधिज्ञान-दर्शन से जानने-देखने का तारतम्य 1215. [1] कण्हलेस्से गं भंते ! रइए कण्हलेस्सं रइयं पणिहाए प्रोहिणा सम्वनो समंता सममिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणति ? केवतियं खेत्तं पासई? गोयमा ! णो बहुयं खितं जाणति णो बहुयं खेत्तं पासइ, णो दूरं खेत्तं जाणति णो दूरं खेत्तं पासति, इत्तरियमेव खेत्तं जाणइ इत्तरियमेव खेत्तं पासति / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति कण्हलेसे णं णेरइए तं चेव जाव इत्तरियमेव खेतं पासति ? गोयमा! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जसि भूमिभागसि ठिच्चा सवप्रो समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितलगतं पुरिसं पणिहाए सम्वनो समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे णो बहुयं खेत्तं जाव पासति जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ।। सेएणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चति कण्हलेसे णं णेरइए जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासति / [1215-1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला नैरयिक कृष्णलेश्या वाले दूसरे नैरयिक की अपेक्षा अवधि (ज्ञान) के द्वारा सभी दिशाओं और विदिशाओं में (सब ओर) समवलोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है और (अवधिदर्शन से) कितने क्षेत्र को देखता है ? [1215-1 उ.] गौतम ! (एक कृष्णलेश्यी नारक दूसरे कृष्णालेश्यावान् नरक की अपेक्षां) न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और न बहुत क्षेत्र को देखता है, (वह) न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को जानता है और न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को देख पाता है, (वह) थोड़े-से अधिक क्षेत्र को जानता है और थोडे-से ही अधिक क्षेत्र को देख पाता है / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या युक्त नारक न बहुत क्षेत्र को जानता है." (इत्यादि) यावत् थोड़े-से ही क्षेत्र को देख पाता है ? उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भू-भाग पर स्थित होकर चारों ओर (सभी दिशाओं और विदिशाओं में) देखे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित (किसी दूसरे) पुरुष की अपेक्षा से सभी दिशाओं-विदिशाओं में बारबार देखता हुआ न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और न बहत अधिक क्षेत्र देख पाता है, यावत् (वह) थोड़े ही अधिक क्षेत्र को जानता और देख पाता है / इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या वाला नारक""""यावत् थोड़े ही क्षेत्र को देख पाता है। [2] णोललेसे गं भंते ! रइए कण्हलेसं गैरइयं पणिहाय प्रोहिणा सम्वनो समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ ? केवतियं खेत्तं पासइ ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 355 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org