________________ 294 ] [प्रज्ञापनासूत्र [1217 उ.] गौतम ! शुक्ललेश्यी जीव दो, तीन, चार या एक ज्ञान में होता है। यदि दो (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान में होता है, तीन या चार ज्ञानों में हो तो (सू. 1216-1 में) जैसा कृष्णलेश्या वालों का कथन किया था, उसी प्रकार यावत् चार ज्ञानों में होता है, यहाँ तक कहना चाहिए / यदि एक ज्ञान में हो तो एक केवलज्ञान में होता है / विवेचन-कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में ज्ञान-प्ररूपणा–प्रस्तुत दो सूत्रों (1216-1217) में कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक से युक्त जीव पांच ज्ञानों में से कितने ज्ञानों वाला होता है ? इसका प्रतिपादन किया गया है। अवधिज्ञानरहित मनःपर्यायज्ञान-किसी किसी में अवधिज्ञानरहित मन:पर्यायज्ञान भी होता है, 'सिद्धप्राभूत' आदि ग्रन्थों में इसका अनेकबार प्रतिपादन किया गया है तथा प्रत्येक ज्ञान की क्षयोपशमसामग्रो विचित्र होती है। आमर्ष-प्रौषधि आदि लब्धियों से युक्त किसी अप्रमत्त चारित्री को विशिष्ट विशुद्ध अध्यवसाय में मनःपर्यायज्ञानावरण के क्षयोपशम की सामग्री प्राप्त हो जाती है, किन्तु अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम की सामग्री प्राप्त नहीं होती। उसे अवधिज्ञान के बिना भी मनःपर्यायज्ञान होता है। कृष्णलेश्यावान् में मनःपर्यायज्ञान कसे? यहाँ शंका हो सकती है कि मनःपर्यायज्ञान तो अतिविशुद्ध परिणाम वाले व्यक्ति को होता है और कृष्णलेश्या संक्लेशमय परिणाम रूप होती है / ऐसी स्थिति में कृष्णलेश्या वाले जीव में मनःपर्यायज्ञान कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि प्रत्येक लेश्या के अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों जितने हैं। उनमें से कोई-कोई मन्द अनुभाव वाले अध्यवसायस्थान होते हैं, जो प्रमत्तसंयत में पाए जाते हैं / यद्यपि मन:पर्यायज्ञान अप्रमत्तसंयत जीव को ही उत्पन्न होता है, परन्तु उत्पन्न होने बाद वह प्रमत्तदशा में भी रहता है। इस दृष्टि से कृष्णलेश्यावाला जीव भी मन:पर्यायज्ञानी हो सकता है।' शुक्ललेश्या वाले की विशेषता-शुक्ललेश्या वाला जीव केवलज्ञान में भी हो सकता है। केवलज्ञान शुक्ललेश्या के ही होता है अन्य किसी में नहीं / यही अन्य लेश्या वालों से शुक्ललेश्या वाले को विशेषता है। / / सत्तरहवां लेश्यापद : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 357 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 358 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org