Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 298 ] [ प्रज्ञापनासूत्र के द्रव्य, नीललेश्या को अर्थात-नीललेश्या के द्रव्यों को प्राप्त होकर, यानी परस्पर एक दूसरे के अवयवों के संस्पर्श को पाकर उसी के-नीललेश्या के रूप में अर्थात् नीललेश्या के स्वभाव के रूप में बार-बार परिणत होती है / तात्पर्य यह है कि कृष्णलेश्या का स्वभाव नीललेश्या के स्वभाव के रूप में बदल जाता है / स्वभाव का किस प्रकार परिवर्तन होता है ? इसे विशद रूप में बताते हैंकृष्णलेश्या नीललेश्या के वर्ण के रूप में, गन्ध के रूप में, रस के रूप में और स्पर्श के रूप में परिणत-परिवर्तित हो जाती है। यह परिणमन अनेकों बार होता है। इसका प्राशय यह है कि जब कोई कृष्णलेश्या के परिणमन वाला मनुष्य या तिर्यञ्च भवान्तर में जाने वाला होता है और वह नीललेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है, तब नीललेश्या के द्रव्यों के सम्पर्क से वे कृष्णलेश्या योग्य द्रव्य तथा रूप जीव-परिणामरूप सहकारी कारण को पा कर नीललेश्या के द्रव्य रूप में परिणत हो जाते हैं क्योंकि पूदगलों में विविध प्रकार से परिणत-परिवर्तित होने का स्वभाव है। तत्पश्चात् वह जीव केवल नीललेश्या के योग्य द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के परिणमन से युक्त होकर काल करके भवान्तर में उत्पन्न होता है। यह सिद्धान्तवचन है कि १'जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता (मरता) है, उसी लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है', तथा वही तिर्यच अथवा मनुष्य उसी भव में विद्यमान रहता हुआ जब कृष्णलेश्या में परिणत होकर नीललेश्या के रूपस्वभाव में परिणत होता है, तब भी कृष्णलेश्या के द्रव्य तत्काल ग्रहण किये हुए नीललेश्या के द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के द्रव्यों के रूप में परिणत (परिवर्तित) हो जाते हैं। इसी तथ्य को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं--जैसे छाछ आदि किसी खट्टी वस्तु के संयोग से दूध के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में परिवर्तन हो जाता है, वह तक (छाछ) आदि के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार शुक्ल वस्त्र रक्त आदि किसी रंग का संयोग पाकर उसी रूप में पलट जाता है। इसी प्रकार कृष्णलेश्यायोग्य द्रव्यों का स्वरूप तथा उसके वर्ण-गन्धादि नीललेश्यायोग्य द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के वर्णादिरूप में परिवर्तित हो जाते हैं। यहाँ तियंचों और मनुष्यों के लेश्या द्रव्यों का पूर्णरूप से तद्रूप में परिणमन माना गया है। देवों और नारकों के लेश्याद्रव्य भवपर्यन्त स्थायी रहते हैं। पूर्व-पूर्व लेश्या का उत्तरोत्तर लेश्या के रूप में परिणमन-सूत्र 1220-1221 में यह बताया गया है कि पूर्व-पूर्व लेश्या उत्तर-उत्तर लेश्या को प्राप्त होकर उसी के वर्णादि रूप में परिणत हो जाती है। किसी भी एक लेश्या का अन्य समस्त लेश्याओं के रूप के परिणमन-सू. 1222 से 1225 तक यह बताया गया है कि कोई भी एक लेश्या क्रम से या व्युत्क्रम से किसी भी अन्य लेश्या के वर्णगन्धादिरूप में परिणत हो सकती है। किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना है कि कोई भी एक लेश्या परस्पर विरुद्ध होने से एक ही साथ अनेक लेश्याओं में परिणत नहीं होती। एक लेश्या का अन्य सभी लेश्याओं में से किसी एक लेश्या के रूप में परिणमन कैसे हो जाता है ? इस सम्बन्ध में दृष्टान्त यह है कि जैसे एक ही वैडूर्यमणि उन-उन उपाधिद्रव्यों के सम्पर्क से उस-उस रूप में परिणत हो जाती है, इसी प्रकार एक लेश्याद्रव्य भी कृष्ण, नील आदि रूपों में परिणत हो जाते हैं। इसी अंश में दृष्टान्त की समानता समझनी चाहिए. अन्य अनिष्ट अंशों में नहीं। - प्रज्ञा. म. व., 6. 359 1. जल्लेसाई दब्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेसे उववज्जइ। 2. प्रज्ञापनासूय मलय. वत्ति, पत्रांक 359-360 3. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 359-360 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org