________________ 296] [ प्रज्ञापनासून [1220 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी रूप में यावत् पुनः पुनः परिणत होती है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त करके उसी रूप में यावत् बार-बार परिणत होती है ? [उ.] गौतम ! जैसे छाछ आदि खटाई का जावण (दूष्य) पाकर दूध, अथवा शुद्ध वस्त्र, रंग (लाल, पीला आदि का सम्पर्क) पाकर उस रूप में, उसी के वर्ण-रूप में, उसो के गन्ध-रूप में, उसी के रस-रूप में, उसी के स्पर्श-रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाता है, इसी प्रकार हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्ण लेश्या नीललेश्या को पा कर उसी के रूप में यावत् पुनः पुन: परिणत होती है / 1221. एवं एतेणं अभिलावेणं णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प, काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं पप्प जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति / [1221] इसी प्रकार [पूर्वोक्त) कथन (अभिलाप) के अनुसार नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर, कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में और यावत् (उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में) पुनः पुनः परिणत हो जाती है / 1222. से गणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं काउलेस्सं तेउलेस्सं पम्हलेस्सं सुक्कलेस्स पप्प तारूवत्ताए तावन्नत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव सुक्कलेस्सं पाप तारूवत्ताए तावन्नत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति / से केण?णं भंते ! एवं वृच्चति किण्हलेस्सा गोललेस्सं जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? गोयमा ! से जहाणामए वेरुलियमणी सिया किण्णसुत्तए वा गोलसुत्तए वा लोहियसुत्तए वा हालिहसुत्तए वा सुकिल्लसुत्तए वा प्राइए समाणे तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति / सेएणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ किण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति / [1222 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में (उनमें से किसी भी लेश्या के रूप में), उन्हीं के वर्ण रूप में, उन्हीं के गन्धरूप में, उन्हीं के रसरूप में, उन्हीं के स्पर्शरूप में पुनः पुन: परिणत होती है ? [1222 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त हो कर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उनमें से किसी भी लेश्या के वर्णादिरूप में) पुनः पुन: परिणत होती है / [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि कृष्णलेश्या, नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उन्हीं के वर्णादिरूप में) पुनः पुन परिणत हो जाती है ? Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only