________________ सत्तरहवाँ लेश्यापर : तृतीय उद्देशक ] [ 293 नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले का उत्तरोत्तर स्फुट ज्ञान-दर्शन-(१) जैसे कोई व्यक्ति समतल भूभाग से पर्वतारूढ़ होकर चारों ओर देखे तो वह भूतल पर खड़े हुए पुरुष की अपेक्षा क्षेत्र को दूर तक, अधिक स्पष्ट, विशुद्धतर जानता-देखता है, वैसे ही नीललेश्या वाला नारक भूमितलस्थानीय कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा अपने अवधिज्ञान से क्षेत्र को अतीव दूर तक निर्मलतर, विशुद्धतर जानता-देखता है / (2) जैसे कोई व्यक्ति समतल भूमि से पर्वतारूढ होकर और फिर वहाँ वृक्ष पर चढ़ कर, दोनों पैर ऊँचे करके देखे तो वह नीचे भूतल पर स्थित और पर्वत पर स्थित पुरुषों की अपेक्षा अधिक दूरतर क्षेत्र को अतीव स्फुट एवं विशुद्धतर देखता है, वैसे ही वक्षस्थानीय कापोतलेश्या वाला, पर्वतस्थानीय नीललेश्यावान् एवं भूमितलस्थानीय कृष्णलेश्यावान् की अपेक्षा अवधिज्ञान से बहुत दूर तक के क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है।' कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में ज्ञान की प्ररूपणा 1216. [1] कण्हलेस्से णं भंते ! जोवे कतिसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा णाणेसु हुज्जा, दोसु होमाणे प्राभिणिबोहिय-सुयणाणेसु होज्जा, तिसु होमाणे प्राभिणिबोहिय-सुयणाण-प्रोहिणाणेसु होज्जा, अहवा तिसु होमाणे प्राभिणिबोहिय-सुयणाण-मणपज्जवणाणेसु होज्जा, चउसु होमाणे प्राभिणिबोहियणाण-सुयणाण-प्रोहिणाणमणपज्जवणाणेसु होज्जा। . [1216-1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला जीव कितने ज्ञानों में होता है ? __ [1216-1 उ.] गौतम ! (वह) दो, तीन अथवा चार ज्ञानों में होता है। यदि दो (ज्ञानों) में हो तो प्राभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान में होता है, तीन (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञान में होता है, अथवा तीन (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक श्रुतज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में होता है और चार ज्ञानों में हो तो प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में होता है। [2] एवं जाव पम्हलेस्से। [1216-2] इसी प्रकार (नील, कापोत और तेजोलेश्या) यावत् पद्मलेश्या बाले जीव में पूर्वोक्त सूत्रानुसार ज्ञानों की प्ररूपणा समझ लेना चाहिए। 1217. सुक्कलेस्से णं भंते ! जीवे कइसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा च उसु वा एगम्मि वा होज्जा, दोसु होमाणे प्राभिणिबोहियणाण 0 एवं जहेव कण्हलेस्साणं (सु. 1226 [1]) तहेव भाणियन्वं जाव चहि, एगम्मि होमाणे एगम्मि केवलणाणे होज्जा। ॥पण्णवणाए भगवतीए लेस्सापदे ततिप्रो उद्देसमो समत्तो / [1217 प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या वाला जीव कितने ज्ञानों में होता है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 356 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org