________________ 292] [ प्रज्ञापनासून सेएणठेणं गोयमा! एवं वच्चति काउलेस्से णं णेरइए णीललेस्सं रइयं पणिधाय तं चेव जाव वितिमिरतरागं( विसुद्धतरागं) खेत्तं पासति / - [1215-3 प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या वाला नारक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा अवधि (ज्ञान) से सभी दिशाओं-विदिशाओं में (सब ओर) देखता-देखता कितने क्षेत्र को जानता है कितने (अधिक) क्षेत्र को देखता है ? [1215-3 उ.] गौतम ! (वह कापोतलेश्यी नारक नीललेश्यी नारक की अपेक्षा) बहुतर क्षेत्र को जानता है, बहुतर क्षेत्र को देखता है, दूरतर क्षेत्र को जानता है, दूरतर क्षेत्र को देखता है तथा यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर (रूप से) जानता-देखता है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि कापोतलेश्यी नारक,..."यावत् विशुद्धतर क्षेत्र को जानता-देखता है ? [उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से पर्वत पर चढ़ जाए, फिर पर्वत से वृक्ष पर चढ़ जाए, तदनन्तर वृक्ष पर दोनों पैरों को ऊँचा करके चारों दिशाओं-विदिशाओं में (सब पोर) जाने-देखे तो वह बहुत क्षेत्र को जानता है, बहुतर क्षेत्र को देखता है यावत् उस क्षेत्र को निर्मलतर (विशुद्धतर रूप से) जानता-देखता है / इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कापोतलेश्या वाला नैरयिक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा........यावत् (अधिक) क्षेत्र को वितिमिरतर (निर्मलतर एवं विशुद्धतर रूप से) जानता और देखता है। विवेचन—कृष्णादिलेश्या वाले नरयिकों में अवधिज्ञान-दर्शन से जानने-देखने का तारतम्य---- प्रस्तुत सूत्र (1215-1, 2. 3) में कृष्णादिलेश्या विशिष्ट नारकों के द्वारा अवधिज्ञान-दर्शन से जाननेदेखने के तारतम्य का निरूपण किया गया है। कष्णलेश्यो दो नारकों में अवधिज्ञान से जानने-देखने में अधिक अन्तर नहीं- कृष्णलेश्यी एक नारक दूसरे कृष्णलेश्यी नारक से बहुत अधिक क्षेत्र को नहीं जानता-देखता, थोड़े-से ही अधिक क्षेत्र को जानता-देखता है / इस कथन का तात्पर्य यह है कि एक कृष्णलेश्यी दूसरे कृष्णलेश्यी नारक से योग्यता में विशुद्धि वाला होने पर भी बहुत अधिक दूरवर्ती क्षेत्र को अवधिज्ञान-दर्शन से नहीं जान-देख पाता, बल्कि थोड़े ही अधिक क्षेत्र को जान-देख पाता है / यह कथन एक ही नरकपृथ्वी के नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि सातवीं नरक का कृष्णलेश्यी नारक जघन्य प्राधा गाऊ और उत्कृष्ट एक गाऊ जानता है, जबकि छठी नरक का कृष्णलेश्यावान् नारक जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट डेढ गाऊ जानता है; पांचवीं-छठी नरकपृथ्वी वाला कृष्णलेश्यी नारक जघन्य डेढ गाऊ और उत्कृष्ट किञ्चित् न्यून दो गाऊ जानता है / इस प्रकार विविध पृथ्वी के कृष्णलेश्यी नारकों के जानने-देखने में अन्तर होने से दोषापत्ति होगी; इसलिए एक ही नरकपृथ्वी के कृष्णलेश्यी नारकों की अपेक्षा से यह कथन यथार्थ है / अधिक न देखने-जानने का कारण यह है कि जैसे दो व्यक्ति समतल भूमि पर खड़े होकर इधर-उधर देखें तो उनमें से एक अपने नेत्रों की निर्मलता के कारण भले अधिक देखे किन्तु कुछ ही अधिक क्षेत्र को जान-देख सकता है, बहुत अधिक दूर तक नहीं। इसी प्रकार कोई कृष्णलेश्यी नारक अपनी योग्यतानुसार दूसरे नारक की अपेक्षा अतिविशुद्ध हो तो भी वह कुछ ही अधिक क्षेत्र को जान-देख पाता है, बहुत अधिक क्षेत्र को नहीं / ' 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 356 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org