________________ सत्तरहवाँ लेश्यायद : तृतीय उद्देशक (289 हता गोयमा ! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से पंचेंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेस्सेसु जाव सुक्कलेस्सेसु पंचेंदियतिरिक्वजोणिएसु उववज्जति, सिय कण्हलेस्से उव्वदृति जाव सिय सुक्कलेस्से उन्नति, सिय जल्ल से उववज्जति तल्लेसे उन्चट्टति / [1211 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला यावत् शुक्ललेश्या वाला पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है ? और क्या उसी कृष्णादि लेश्या से युक्त होकर (मरण) करता है ? इत्यादि पृच्छा / [1211 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या वाला यावत् शुक्ललेश्या वाला पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक (क्रमशः) कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु उद्वर्त्तन (मरण) कदाचित् कृष्णलेश्या वाला होकर करता है, कदाचित् नीललेश्या वाला होकर करता है, यावत् कदाचित् शुक्ललेश्या से युक्त होकर करता है, (अर्थात्) कदाचित् जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, (कदाचित् अन्य लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्तन करता है।) 1212. एवं मणसे वि। [1212] मनुष्य भी इसी प्रकार (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के समान छहों लेश्यामों में से किसी भा लेश्या से युक्त होकर उसी लेश्या वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा इसका उद्वर्तन भी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के समान) समझना चाहिए।) 1213. वाणमंतरे जहा असुरकुमारे (सु. 1209) / [1213] वाणव्यन्तर देव का (सामूहिक लेश्यायुक्त उत्पाद और उद्वर्तन सू. 1206 में उक्त) असुरकुमार की तरह समझना चाहिए। 1214. जोइसिय-वेमाणिए वि एवं चेव / नवरं जस्स जल्लेसा, दोण्ह वि चयणं ति भाणियन्वं / [1214] ज्योतिष्क और वैमानिक देव का उत्पाद-उद्वर्तनसम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार (असुरकुमारों के समान) ही समझना चाहिए। विशेष यह है कि जिसमें जितनी लेश्याएँ हों, उतनी लेश्याओं का कथन करना चाहिए तथा दोनों (ज्योतिष्कों और वैमानिकों) के लिए उद्वर्तन के स्थान में 'च्यवन' शब्द कहना चाहिए। विवेचन-चौवीसदण्डकवर्ती जीवों का लेश्या को अपेक्षा से सामूहिक उत्पाद-उद्वर्तन सम्बन्धी निरूपण-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 1208 से 1214 तक) में चौवीसदण्डकवर्ती प्रत्येक दण्डकीय जीव की संभावित लेश्याओं को लेकर सामूहिक रूप से उत्पाद-उद्वर्तन की पुन: प्ररूपणा की गई है / इन सूत्रों के पुनरावर्तन का कारण-यद्यपि नारकों से वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों के क्रम से प्रत्येक दण्डक के जीव की एक-एक लेश्या को लेकर उत्पाद और उद्वर्त्तनसम्बन्धी प्ररूपणा पूर्वसूत्रों (1201 से 1207 तक) में की जा चुकी है, तथापि विभिन्न लेश्या वाले बहत-से नारकों के उस-उस गति में उत्पन्न होने की स्थिति में अन्यथा वस्तुस्थिति की संभावना की जा सकती है, क्योंकि एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org