Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सत्तरहवा लेश्यापद : तृतीय उद्देशक] [285 [5] तेऊ वाऊ एवं चेव / णवरं एतेसि तेउलेस्सा णस्थि / [1203-5] तेजस्कायिकों और वायुकायिकों की (उत्पाद-उदवर्तनसम्बन्धी वक्तव्यता) इसी प्रकार है (किन्तु) विशेषता यह है कि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। 1204. बिय-तिय चरिंदिया एवं चेव तिसु लेसासु / [1204] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का (उत्पाद-उद्वर्तन सम्बन्धी कथन) भी इसी प्रकार तीनों (कृष्ण, नील एवं कापोत) लेश्याओं में जानना चाहिए। 1205. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणसा य जहा पुढविक्काइया श्रादिल्लियासु तिसु लेस्सासु भणिया (सु. 1203 [१-२])तहा छसु वि ल सासु भाणियन्वा / णवरं छप्पि ले सानो चारियव्वाप्रो / (1205] पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों का (उत्पाद-उदवर्तन सम्बन्धी) कथन भी छहों लेश्याओं में उसी प्रकार है, जिस प्रकार (सू. 1203-1-2 में) पृथ्वीकायिकों का (उत्पादउद्वर्तन-सम्बन्धी कथन) प्रारम्भ की तीन लेश्याओं (के विषय) में कहा है। विशेषता यही है कि (पूर्वोक्त तीन लेश्या के बदले यहाँ) छहों लेश्याओं का कथन (अभिलाप) करना चाहिए। 1206. वाणमंतरा जहा असुरकुमारा (सु. 1202) / [1206] वाणव्यन्तर देवों की (उत्पाद-उद्वर्तन-सम्बन्धी वक्तव्यता सू. 1202 में उक्त) असुरकुमारों (की वक्तव्यता) के समान (जाननी चाहिए / ) 1207. [1] से गूणं भंते ! तेउलेस्से जोइसिए तेउल सेसु जोइसिएसु उवज्जति ? जहेव असुरकुमारा। [1207-1 प्र.) भगवन् ! क्या तेजोलेश्या वाला ज्योतिष्क देव तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है ? (क्या वह तेजोलेश्यायुक्त हो कर ही च्यवन करता है ?) [1207-1 उ.] जैसा असुरकुमारों के विषय में कहा गया है, वैसा ही कथन ज्योतिष्कों के विषय में समझना चाहिए / [2] एवं वैमाणिया वि / नवरं दोण्ह वि चयंतीति अभिलावो। [1207-2] इसी प्रकार वैमानिक देवों के उत्पाद और उद्वर्तन के विषय में भी कहना चाहिए / विशेषता यह है कि दोनों प्रकार के (ज्योतिष्क और वैमानिक) देवों के लिए ('उद्वर्तन करते हैं, इसके स्थान में) 'च्यवन करते हैं ऐसा अभिलाप (करना चाहिए।) विवेचन-लेश्यायुक्त चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 1201 से 1207 तक) में लेश्या की अपेक्षा से चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की उत्पाद और उद्वर्तन की प्ररूपणा की गई है। नारकों और देवों में उत्पाद और उद्वर्तन का नियम-जीव जिस लेश्यावाला होता है, वह उसी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है तथा उसी लेश्या वाला होकर वहाँ से उद्वर्तन करता (मरता) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org