Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 286 ] [ प्रज्ञापनासूत्र है / उदाहरणार्थ-कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है और जब उद्वर्तन करता है, तब कृष्णलेश्या वाला होकर ही उद्वर्त्तन करता है, अन्य लेश्या से युक्त होकर नहीं। इसका कारण यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अथवा मनुष्य पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चायु अथवा मनुष्यायु का पूरी तरह से क्षय होने से अन्तमुहर्त पहले उसी लेश्या से युक्त हो जाता है, जिस लेश्या वाले नारक में उत्पन्न होने वाला होता है। तत्पश्चात् उसी अप्रतिपतित परिणाम से नरकायु का बेदन करता है / अतएव कहा है-कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में ही उत्पन्न होता है, अन्य लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न नहीं होता। तत्पश्चात् वहाँ कृष्णलेश्या वाला ही बना रहता है, उसको लेश्या बदलती नहीं है; क्योकि देवों और नारको कोलेश्या भव का क्षय होने तक बदलतो नहीं है। इसी प्रकार नीललेश्या वाला या कापोतलेश्या वाला नारक उसी लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है, अन्य लेश्या वालों में नहीं और न अन्य लेश्या वाला नोललेश्या या कापोतलेश्या वालों में उत्पन्न होता है। नारकों की उदवर्तना के सम्बन्ध में भी यही नियम है कि नीललेश्या वालों में उत्पन्न नारक नीललेश्या युक्त होकर ही वहाँ से उद्वृत्त होता है, अन्य लेश्यायुक्त होकर नहीं।' पृथ्वीकायिक प्रादि को उद्वर्तना के सम्बन्ध में-पृथ्वीकायिक आदि तिर्यञ्चों और मनुष्यों को उद्वर्तना के विषय में यह नियम एकान्तिक नहीं है कि जिस लेश्या वालों में वह उत्पन्न हो, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करे / वह कदाचित् कृष्णलेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् नीललेश्या वाला होकर और कदाचित् कापोतलेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है तथा कदाचित् वह जिस लेश्या वालों में उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है / इसका कारण यह है कि तिर्यञ्चों और मनुष्यों का लेश्या-परिणाम अन्तर्मुहूर्त्तमात्र स्थायी रहता है, उसके पश्चात् बदल जाता है। अतएव जो पृथ्वीकायिकादि जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, वह कदाचित् उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् अन्य लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्तन करता है। तेजोलेश्या से युक्त पृथ्वीकायिक उत्पन्न तो होता है लेकिन तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वत्त नहीं होता। इसका कारण यह है कि जब भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान कल्पों के देव तेजोलेश्या से युक्त होकर अपने भव का त्याग करके पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं, तब कुछ काल तक अपर्याप्त अवस्था में उनमें तेजोलेश्या भी पाई जाती है, किन्तु उसके पश्चात् तेजोलेश्या नहीं रहती, क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव अपने भव-स्वभाव से ही तेजोलेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं / इस अभिप्राय से कहा है कि तेजोलेश्या से युक्त होकर पृथ्वीकायिक उत्पन्न तो होता है, किन्तु तेजोलेश्या से युक्त होकर उवृत्त नहीं होता। पृथ्वोकायिकों की तरह अप्कायिकादि की चार वक्तव्यताएँ—जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों की कृष्ण, नील, कापोत एवं तेजोलेश्या सम्बन्धी चार वक्तव्यताएँ कही हैं, उसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों की भी चार वक्तव्यताएँ कहनी चाहिए, क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में उनमें भी तेजोलेश्या पाई जाती है। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 353 2. 'अंतोमुत्तमि गए, सेसए पाउं (चेव) / लेसाहि परिणयाहिं जीवा बच्चंति परलोयं / / ' 3. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 354 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org