________________ सत्तरहवा लेश्यापद : तृतीय उद्देशक ] [283 में उत्पन्न होता है, क्योंकि नारक भवोपग्राहक आयु ही भव का कारण है / अतः जब नरकायु का उदय होता है, तभी जीव को नरकभव की प्राप्ति होती है तथा जब मनुष्यायु का उदय होता है, तब मनुष्यभव प्राप्त होता है / इसलिए ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से नारकायु आदि के वेदन के प्रथम समय में ही नारक आदि संज्ञा का व्यवहार होने लगता है / 2. दूसरा प्रश्न उद्वतेन विषयक है। उसका अर्थ है-नारक से भिन्न (अनारक) नारकभव से (नारकों से) उदवर्तन करता है अर्थात निकलता है / इसका तात्पर्य यह है कि जब तक किसी जीव के नरकायु का उदय बना हुआ है, तब तक वह नारक कहलाता है और जब नरकायु का उदय नहीं रहता, तब वह अनारक (नारकभिन्न) कहलाने लगता है। अत: जब तक नरकायु का उदय है, तब तक कोई जोव नरक से नहीं निकल सकता / इसी कारण कहा गया है-नारक नरक से उद्वत्त नहीं होता, बल्कि वही जीव नरक से उद्वर्तन करता है, जो अनारक हो, (जिसके नरकायु का उदय न रह गया हो) / निष्कर्ष यह है कि अागामी भव की आयु का उदय होने पर जीव वर्तमान भव से उद्वत्त होता है और जिस भव. सम्बन्धी आयु का उदय हो, उसी नाम से उसका व्यवहार होता है। इसी प्रकार असुरकुमार आदि शेष 23 दण्डकों के उत्पाद एवं उद्वर्तन के विषय में समझ लेना चाहिए।' लेश्यायुक्त चौवीसदण्डकवर्ती जीवों को उत्पाद-उद्वर्तनप्ररूपणा 1201. [1] से णणं भंते ! कण्हलेस्से मेरइए कण्हलेस्सेसु रइएसु उववज्जति ? कण्हलेस्से उव्वट्टति ? जल्लेस्से उववज्जति तल्लेसे उन्धट्टति ? हंता गोयमा ! कण्हलेसे गैरइए कण्हलेसेसु गैरइएसु उववज्जति, कण्हलेसे उन्वट्टति, जल्लेसे उववज्जति तल्लेसे उन्चट्टति / [1201-1 प्र.) भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में ही उत्पन्न होता है ? कृष्णलेश्या वाला ही (नारकों में से) उद्वृत्त होता है ? (अर्थात्-) जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है ? . [1201.1 उ. हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है, कृष्णलेश्या वाला होकर ही (वहाँ से) उद्वृत्त होता है। जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता (निकलता) है / [2] एवं णोललेसे वि काउलेसे वि / [1201-2] इसी प्रकार नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले (नारक के उत्पाद और उद्वर्तन के सम्बन्ध में) भी (समझ लेना चाहिए।) 1202. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि / णवरं तेउलेस्सा अभइया / [1202] असुरकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों तक भी इसी प्रकार से उत्पाद और उद्वर्तन का कथन करना चाहिए। विशेषता यह है कि इनके सम्बन्ध में तेजोलेश्या का कथन (अभिलाप) अधिक करना चाहिए / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 353 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org