Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 278 ] [प्रज्ञापनासूत्र पंचेन्द्रियतिर्यंचों और गर्भज तिर्यञ्चस्त्रियों का, (9) पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और तिर्यंचस्त्रियों का और (10) तिर्यञ्चों और तिर्यंचस्त्रियों का सम्मिलित अल्पबहुत्व / ' एक बात विशेषत: ध्यान देने योग्य है कि सभी लेश्याओं में स्त्रियों की संख्या अधिक पाई जाती है। यों भी सभी तिर्यञ्च पुरुषों की अपेक्षा तिर्यञ्च स्त्रियों की संख्या तिगुनी और तीन अधिक होती है, ऐसा सैद्धान्तिकों का मन्तव्य है। यही कारण है कि सप्तम अल्पबहुत्व में तिर्यञ्च स्त्रियाँ संख्यातगणी अधिक बताई हैं। फिर पाठवें के बाद नोवें अल्पबद्रत्व में भी पचेन्द्रियति अधिक बताई गई हैं, तत्पश्चात् दसवें अल्पबहुत्व में भी तिर्यञ्चस्त्रियों की संख्या अधिक प्रतिपादित मनुष्यों के अल्पबहत्व में पंचेन्द्रियतियञ्चों के अल्पबहुत्व से विशेषता यों तो मनुष्यों के अल्पबहुत्व की प्रायः सभी वक्तव्यता पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के अल्पबहुत्व के समान ही है, किन्तु मनुष्यों में पिछला अर्थात् दसवां अल्पबहुत्व नहीं होता, क्योंकि मनुष्यों में अनन्तसंख्या सम्भव नहीं है। इस कारण 'कापोतलेश्या बाले अनन्तगुणे हैं। यह भाग मनुष्यों में सम्भव नहीं है। चारों निकायों के देवों का अल्पबहत्त्व-(१) समच्चय देवों का अल्पबहत्व-सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले देव इसलिए हैं कि शुक्ललेश्या लान्तक प्रादि ऊपर के देवलोकों में ही पाई जाती है। शुक्ललेश्यो देवों से पद्मलेश्यी देव असंख्यात गुणे अधिक हैं, क्योंकि सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प में पद्मलेश्या होती है और वहाँ के देव लान्तककल्प आदि के देवों की अपेक्षा असंख्यातगुणे अधिक हैं / पद्मलेश्यी देवों से कापोतलेश्यी देव असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि कापोतलेश्या भवनवासी और वाणव्यन्तर देवों में पाई जाती है, जो कि उनकी अपेक्षा असंख्यातगणे हैं / उनसे नीललेश्वी देव विशेषाधिक इसलिए हैं कि बहुत-से भवनवासियों और वाणव्यन्तरों में नीललेश्या. पाई जाती है। नीललेश्यी देवों से कृष्णलेश्यी देव विशेषाधिक होते हैं, क्योंकि अधिकांश भवनपति और वाणव्यन्तर देवों में कृष्णलेश्या होती है। इन सबकी अपेक्षा से तेजोलेश्याविशिष्ट देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि बहुत-से भवनवासियों में, समस्त ज्योतिष्क देवों में तथा सौधर्म-ऐशान देवों में तेजोलेश्या का सद्भाव है। (2) सलेश्य समुच्चय देवियों के अल्पबहुत्व की समीक्षा-कापोतलेश्या वाली देवियाँ सबसे कम इसलिए हैं कि भवनवासी एवं व्यन्तर देवियों में हो कापोतलेश्या होती है, उनसे नीललेश्यायुक्त देवियाँ विशेषाधिक हैं, क्योंकि बहुत-सी भवनवासी और वाणव्यन्तर देवियों में नीललेश्या पाई जाती है। इनकी अपेक्षा कृष्णलेश्या वाली देवियां विशेषाधिक हैं, क्योंकि अधिकांश भवनपति, वाणव्यन्तर 1. ओहिय पणिदि 1 समुच्छिया 2 य मन्भे 3 तिरिक्ख इत्थीओ 4 / समुच्छिमगन्मतिरिया 5, मुच्छतिरिक्खी य६, गर्भमि 7 // 1 // संमुच्छिमगढमइत्थी 8, पणिदितिरिगित्थोया 9 य ओहित्थी 10 / दस अप्पबहुगभेया तिरियाणं होंति नायव्वा // 2 // -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 349 में उद्धृत / 2. 'तिगुणातिरूवअहिया तिरियाणं इत्थिया मरोयम्वा / ' 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 347 . 4. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 349 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org