Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सत्तरहवा लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] [259 अत्यन्त उत्कृष्ट अशुभ स्थिति का उपार्जन करते हैं / मायो मिथ्यादृष्टि नारकों को उस प्रत्युत्कृष्ट अशुभ स्थिति में महावेदना होती है, इसके विपरीत अन्य अमायी सम्यग्दृष्टि नारकों को अपेक्षाकृत अल्प वेदना होती है। इसके अतिरिक्त शेष आहारादि पदों के विषय में पूर्वोक्त समुच्चय नारकों के समान ही कृष्णलेश्याविशिष्ट नारकों का कथन करना चाहिए / कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्यों की क्रियाविषयक प्ररूपणा-इसमें समुच्चय से कुछ विशेषता है। वस्तुत: कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्य सम्यग्दृष्टि आदि के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। इनमें से सम्यग्दृष्टि मनुष्यों के तीन प्रकार हैं ---संयमी, असंयमी और संयमासंयमी / जैसे—प्रोधिक (सामान्य) मनुष्यों के विषय में इन तीनों की क्रियाओं का कथन किया गया है, वैसे ही कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिए। जैसे कि वीतरागसंयत मनुष्यों में कोई क्रिया नहीं होती। सरागसंयत मनष्यों में दो क्रियाएँ होती हैं--प्रारम्भिकी और मायाप्रत्यया। कृष्णलेश्या प्रमत्तसंयतों में होती है. अप्रमत्तसंयतों में नहीं। सभी प्रकार के प्रारम्भ प्रमादयोग में होते हैं ते हैं, अत: प्रमत्तसंयतों में प्रारम्भिकी क्रिया होती है और क्षीणकषाय न होने से उनमें मायाप्रत्यया क्रिया भी होती है। किन्तु जो संयतासंयत हैं, उनमें प्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया, ये तीन तथा असंयत मनुष्य में इन तीनों के उपरांत चौथी अप्रत्याख्यानक्रिया भी पाई जाती है।' कापोतलेश्या वाले नारकों का वेदनासूत्र-कापोतलेश्याविशिष्ट नारकों का वेदनाविषयक कथन समुच्चय नारकों के समान समझना चाहिए। यथा--कापोतलेश्याविशिष्ट नारक दो प्रकार के कहे हैं—संज्ञीभूत और असंज्ञोभूत, इत्यादि प्रकार से समझना चाहिए। असंजो जोव भी प्रथम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होता है, जहाँ कि कापोतलेश्या का सद्भाव है / 2 तेजोलेश्याविशिष्ट प्रसुरकुमारादि की वक्तव्यता--सिद्धान्तानुसार नारक, तेजस्कायिक, वायुकायिक तथा विकलेन्द्रिय जीवों में तेजोलेश्या नहीं होती, इसलिए तेजोलेश्या की अपेक्षा से सर्वप्रथम असुरकुमारों का कथन किया है / तेजोलेश्याविशिष्ट असुरकुमारों का वेदना के सिवाय शेष आहारादि षवारों के विषय में कथन औधिक अर्थात्-समुच्चय असुरकुमारों के समान समझना चाहिए / इनके बेदनासत्र के विषय में ज्योतिष्क देवों के वेदनासूत्र के समान समझना चाहिए / अर्थातइसकी अपेक्षा से असुरकुमारों के संज्ञीभूत, असंज्ञीभूत ये दो भेद न करके मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक, ये दो भेद कहने चाहिए, क्योंकि असंज्ञी जीवों की तेजोलेश्यावालों में उत्पत्ति असंभव है। तेजोलेश्या विशिष्ट मनुष्यों का क्रियासूत्र-क्रियाओं की अपेक्षा से संयत मनुष्य दो प्रकार के कहने चाहिए-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत / इन दोनों में तेजोलेश्या सम्भव है। सरागसंयत और वीतरागसंयत ये भेद तेजोलेश्याविशिष्ट मनुष्यों में नहीं करने चाहिए, क्योंकि वीतरागसंयतों में तेजोलेश्या सम्भव नहीं है / वह सरागसंयतों में ही पाई जाती है। 1. (क) 'असन्नी खलु पढम'-प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 342 में उद्धृत (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 342 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 343 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org