________________ सत्तरहवा लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] [ 257 के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--संयत, असंयत और संयतासंयत"; (इत्यादि सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए / ) 1148. जोइसिय-वेमाणिया प्राइल्लि गासु तिसु लेस्सासु ण पुच्छिज्जति / 1148] ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में प्रारम्भ की तीन लेश्याओं (कृष्ण, नील और कापोत लेश्या) को लेकर प्रश्न नहीं करना चाहिए। 1146. एवं जहा किण्हलेस्सा विचारिया तहा णीललेस्ता विचारियब्वा / [1149] इस प्रकार जैसे कृष्णलेश्या वालों (चौवीसदण्डकवर्ती जीवों) का विचार किया गया है, उसी प्रकार नीललेश्या वालों का भी विचार कर लेना चाहिए / 1150, काउलेस्सा णेरइएहितो प्रारम्भ जाव वाणमंतरा। णवरं काउलेस्सा रइया वेदणाए जहा प्रोहिया (सु. 1128) / [1150] कापोतलेश्या वाले भी (नीललेश्या वालों के समान) नैरयिकों से प्रारम्भ करके (दश भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनष्य एवं) यावत वाणव्यन्तर तक हैं। इनका सप्तद्वारादिविषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले नैरयिकों का वेदना के विषय में प्रतिपादन (सू. 1128 में उक्त) समुच्चय (प्रौधिक नारकों) के समान (जानना चाहिए / ) 1151. तेउलेस्साणं भंते ! असुरकुमाराणं तानो चेव पुच्छायो। गोयमा ! जहेव प्रोहिया तहेव (सु. 1131-35) / णवरं वेदणाए जहा जोतिसिया (सु. 1144) / [1151 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या वाले असुरकुमारों के समान आहारादि सप्तद्वारविषयक प्रश्न उसी प्रकार हैं, इनका क्या समाधान है ? [1151 उ.] गौतम ! जैसे (लेश्यादिविशेषणरहित) समुच्चय असुरकुमारों का अाहारादिविषयक कथन (सू. 1131 से 1135 तक में) किया गया है, उसी प्रकार तेजोलेश्याविशिष्ट असुरकुमारों को आहारादिसम्बन्धी वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए / विशेषता यह है कि वेदना के विषय में जैसे (सू. 1144 में) ज्योतिष्कों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ भी कहनी चाहिए। 1152. पुढवि-प्राउ-वणस्सइ-पंचेंदियतिरिक्ख-मणूसा जहा प्रोहिया (1137-36, 114142) तहेव भाणियत्वा / णवरं मणूसा किरियाहि जे संजया ते पमत्ता य अपमत्ता य भाणियन्वा, सरामा वीयरागा णस्थि / [1152] (तेजोलेश्या वाले) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का कथन उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार (सू. 1137 से 1139 तक और 1141-1142) औधिक सूत्रों में किया गया है। विशेषता यह है कि क्रियाओं की अपेक्षा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org