________________ सत्तरहवां लेश्यापद : प्रथम उद्देशक] [ 255 [1143] जैसे असुरकुमारों की (आहारादिवक्तव्यता सू. 1131 से 1135 तक में कही है,) उसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों की (माहारादिवक्तव्यता कहनी चाहिए।) 1144, एवं जोइसिय-वेमाणियाण वि। णवरं ते वेदणाए दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-माइमिच्छट्टिीउबवण्णगा य अमाइसम्मट्टिीउबवण्णगा य / तत्थ णं जे ते माइमिच्छद्दिष्टिउववण्णगा ते गं अप्पवेदणतरागा / तत्थ जे ते अमाइसम्मट्टिीउबवण्णगा ते गं महावेदणतरागा, सेएणटठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ० / सेसं तहेव / 61144] इसी प्रकार ज्योतिष्क और वैमानिकों देवों के ग्राहारादि के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि वेदना की अपेक्षा से वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार---मायीमिथ्या दृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / उनमें से जो मायी-मिथ्यादष्टि-उपपन्नक हैं, वे अल्पतर वेदना वाले हैं और जो अमायो-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे महावेदना वाले हैं। इसी कारण से हे गौतम ! सब वैमानिक समान वेदना वाले नहीं हैं। शेष (आहार, वर्ण, कर्म आदि सब) पूर्ववत् (असुरकुमारों और वाणव्यन्तरों के समान समझ लेना चाहिए।) विवेचन-वाणयन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की प्राहारादिविषयक-प्ररूपणा- प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 1143-1144) में वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की आहारादिविषयक वक्तव्यता असुरकुमारों के अतिदेशपूर्वक कही गई है। वाणव्यन्तरों को समाहारादि वक्तव्यता-असुरकुमार दो प्रकार के होते हैं-संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत / जो संज्ञीभूत होते हैं, वे महावेदना वाले और जो असंज्ञोभूत होते हैं वे अल्पवेदना वाले; इत्यादि कथन किया गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तरों के विषय में भी जानना चाहिए / व्याख्या. प्रज्ञप्ति में कहा है-'असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति देवगति में हो तो जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तरों में होती है। अतः असुरकुमारों में असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार जो युक्ति असुरकुमारों के विषय में कही है, वही यहाँ भी जान लेनी चाहिए। असुरकुमारों से ज्योतिष्क, वैमानिकों को वेदना में अन्तर-जैसे असुरकुमारों में कोई असंज्ञीभूत और कोई संज्ञोभूत कहे हैं, वैसे ही ज्योतिष्कों और वैमानिकों में उनके स्थान में मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक कहना चाहिए, क्योंकि ज्योतिष्कनिकाय और वैमानिकनिकाय में असंज्ञी जीव उत्पन्न नहीं होते। इसमें युक्ति यह है कि असंज्ञियों की आयु की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है, जबकि ज्योतिष्कों की जघन्यस्थिति भी पल्योपम के असंख्येयभाग की होती है, और वैमानिकों की एक पल्योपम की है / अतएव यह निश्चित है कि उनमें असंज्ञियों का उत्पन्न होना संभव नहीं है / सलेश्य चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की पाहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा 1145. सलेस्सा णं भंते ! रइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासणिस्सासा? सच्चेव पुच्छा। 1. 'असन्तीणं जहन्नेणं वणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु / ' -व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक 1, उद्देशक 2 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 341 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org