________________ सत्तरहवां लेश्यापद : प्रथम उद्देशक } [253 महासरीरा ते गं बहुयराए पोग्गले प्राहारेंति जाव बहुतराए पोग्गले णीससंति, प्राहच्च प्राहारेंति० प्राहच्च णीससंति / तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले प्राहारेंति जाव अपतराए पोग्गले णीससंति, अभिक्खणं आहारति जाव अभिक्खणं नीससंति, सेएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चति मणूसा सव्वे णो समाहारा / सेसं जहा णेरइयाणं (सु. 1125-30) / णवरं किरियाहिं मणूसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-सम्मट्ठिी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छद्दिट्ठो। तत्थ णं जे ते सम्मट्ठिी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा—संजया प्रसंजया संजयासंजया / तस्थ गंजे ते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहासरागसंजया य वीतरागसंजया य, तत्थ णं जे ते वोयरागसंजया ते णं अकिरिया। तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—पमत्तसंजया य अपमत्तसंजया य, तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया तेसि एगा मायावत्तिया किरिया कज्जति, तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसि दो किरियानो कज्जंति, तं जहा-प्रारंभिया मायावत्तिया य / तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसि तिणि किरियाप्रो कज्जति, तं जहा-प्रारंमिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 / तस्थ णं जे ते असंजया तेसि चत्तारि किरियानो कज्जति, तं जहा–आरंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 प्रपच्चक्खाणकिरिया 4 / तत्थ णं जे ते मिच्छट्टिी जे य सम्मामिच्छद्दिष्ट्ठी तेसि यइयाप्रो पंच किरियानो कज्जंति, तं जहा-प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खारिया 4 मिच्छादसणवत्तिया 5 / सेसं जहा णेरइयाणं / [1142 प्र.] भगवन् ! मनुष्य सभी समान आहार वाले होते हैं ? [1142 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सब मनुष्य समान आहार वाले नहीं हैं ? [उ.] गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार महाशरीर वाले और अल्प (छोटे-) शरीर वाले / उनमें जो महाशरीर वाले हैं, वे बहुत-से पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् बहुत-से पुद्गलों का निःश्वास लेते हैं तथा कदाचित् आहार करते हैं, यावत् कदाचित् निःश्वास लेते हैं। उनमें जो अल्पशरीर वाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का प्राहार करते हैं, यावत् अल्पतर पूदगलों का नि:श्वास लेते हैं; बार-बार आहार लेते हैं, यावत बार-बार नि:श्वास लेते हैं / इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी मनुष्य समान आहार वाले नहीं हैं / शेष सब वर्णन (सू. 1125 से 1130 तक में उक्त) नरयिकों (के कर्मादि छह द्वारों के निरूपण) के अनुसार (समझ लेना चाहिए / ) किन्तु क्रियाओं की अपेक्षा से (नारकों से किञ्चित्) विशेषता है। (वह इस प्रकार है-.-.) मनुष्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा--सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि / इनमें से जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, जैसे कि-संयत, असंयत और संयतासंयत / जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे हैं—सरागसंयत और वीतरागसंयत / इनमें से जो वीतरागसंयत हैं, वे अक्रिय (क्रियारहित) होते हैं / उनमें से जो सरागसंयत होते हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत / इनमें से जो अप्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें एक मायाप्रत्यया क्रिया ही होती है। जो प्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें दो क्रियाएँ होती हैं, आरम्भिको और मायाप्रत्यया। उनमें से जो संयतासंयत होते हैं, उनमें तीन क्रियाएँ पाई जाती हैं / यथा-१. प्रारम्भिकी, 2. पारि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org