Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 252] [प्रज्ञापनासूत्र विशेष यह है कि क्रियाओं में नारकों से कुछ विशेषता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तीन प्रकार के हैं, यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि / उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे दो प्रकार के हैं--असंयत और संयतासंयत / जो संयतासंयत हैं, उनको तीन क्रियाएँ लगती हैं। वे इस प्रकार--- प्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया / जो असंयत होते हैं, उनको चार क्रियाएँ लगती हैं / वे इस प्रकार हैं--१. आरम्भिकी, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया और 4. अप्रत्याख्यानक्रिया। (पूर्वोक्त) इन तीनों में से जो मिथ्यादृष्टि हैं और जो सम्यग्-मिथ्यादष्टि हैं, उनको निश्चित रूप से पांच क्रियाएँ लगती हैं / वे इस प्रकार-१. प्रारम्भिकी, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया, 4. अप्रत्याख्यानक्रिया और 5. मिथ्यादर्शनप्रत्यया / शेष सब निरूपण उसी प्रकार (पूर्ववत् करना चाहिए।) विवेचन-पथ्वीकायिकों से लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों तक को समाहारादि सप्तद्वार प्ररूपणाप्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 1137 से 1141 तक) में पृथ्वीकायिकों से लेकर तिर्यंचपंचेन्द्रियों तक आहारादि सप्तद्वारों की प्ररूपणा की गई है। पृथ्वीकायिकों के अल्पशरीर-महाशरीर-यद्यपि सभी पृथ्वीकायिकों का शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होता है, तथापि अागम में बताया है कि' एक पृथ्वीकायिक दूसरे पृथ्वीकायिक से अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, इत्यादि; तदनुसार वे अपेक्षाकृत महाशरीर और अल्पशरीर सिद्ध होते हैं। जो पृथ्वीकायिक महाशरीर होते हैं, वे महाशरीर होने के कारण लोमाहार से प्रभूत पुद्गलों का आहार करते हैं, उच्छ्वास लेते हैं तथा बार-बार आहार करते हैं और श्वासोच्छ्वास लेते हैं / जो अल्पशरीर होते हैं, वे लघुशरीरी होने से अल्प आहार और अल्प श्वासोच्छ्वास लेते हैं, आहार और उच्छ्वास भी कदाचित् लेते हैं, वह पर्याप्त-अपर्याप्त-अवस्था की अपेक्षा से समझना चाहिए। पृथ्वीकायिकादि समवेदना वाले क्यों ?-सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी अर्थात् मिथ्यादष्टि अथवा अमनस्क होते हैं / वे असंज्ञीभूत और अनियत वेदना का वेदन करते हैं। तात्पर्य यह है कि मत्त-मूच्छित आदि की तरह वेदना का अनुभव करते हुए भी वे नहीं समझ पाते कि यह मेरे पूर्वोपाजित अशुभ कर्मों का परिणाम है, क्योंकि वे असंज्ञी और मिथ्यादृष्टि होते हैं। मायी का अर्थ-यहां माया का अर्थ केवल मायाकषाय नहीं, किन्तु उपलक्षण से अनन्तानु. बन्धी कषायचतुष्टय है / अत: मायो का अर्थ यहाँ अनन्तानुबन्धी कषायोदयवान् होने से मिथ्यादृष्टि है।' मनुष्य में समाहारादि सप्त द्वारों को प्ररूपरणा 1142. मसाणं भंते ! सके समाहारा ? गोयमा ! णो इणठे समझें / से केण?णं? गोयमा ! मणसा दुविहा पण्णता, तं जहा--महासरीरा य अप्पसरीरा य / तत्थ णं जे ते 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 339 (ख) 'पुढविकाइए पुढविकाइयस्स ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणडिए / ' -प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 339 में उद्धत 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय वृत्ति, पत्रांक 339 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org