________________ है, कि 250] [ प्रज्ञापतासूत्र हैं / इसका कारण यह है कि असुरकुमार अपने भव का त्याग करके या तो तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होते हैं, या मनुष्ययोनि में / तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होने वाले कई एकेन्द्रियों में-पृथ्वीकाय, अप्काय या वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं और कई पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में भी उत्पन्न होते हैं / जो मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, वे कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज और समूच्छिम मनुष्यों में नहीं। वहाँ छह महीना प्रायु शेष रहने पर परभव-सम्बन्धी आयु का बन्ध करते हैं। प्रायु के बन्ध के समय एकान्त तिर्यञ्चयोग्य अथवा एकान्त मनुष्ययोग्य प्रकृतियों का उपचय करते हैं / इस कारण पूर्वोत्पन्न असुरकुमार महाकर्म वाले होते हैं किन्तु जो बाद में उत्पन्न हुए हैं, उन्होंने अभी तक परभवसम्बन्धी प्रायुष्य नहीं बांधा है और न ही तिर्यञ्च या मनुष्य के योग्य प्रकृतियों का उपचय किया होता है, इस कारण वे अल्पतर कर्म वाले होते हैं। यह सूत्र भी पूर्ववत् समान स्थिति वाले, समान भववाले परिमित असुरकुमारों की अपेक्षा से समझना चाहिए।' पूर्वोत्पन्न असुरकुमार अविशुद्ध वर्ण-लेश्यावाले, पश्चादुत्पन्न इसके विपरीत-असुरकुमारों को भव की अपेक्षा से प्रशस्त वर्णनामकर्म के शुभ तीव्र अनुभाग का उदय होता है। पूर्वोत्पन्न असुरकुमारों का शुभ अनुभाग बहुत-सा क्षीण हो त्रुकता है, इस कारण वे अविशुद्धतर वर्ग वाले होते किन्तु जो असुरकूमार बाद में उत्पन्न हए हैं, उनके वर्णनामकर्म के शुभ अनुभाग का बहत-सा भाग क्षीण नहीं होता, विद्यमान होता है, अतएव वे विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं / लेश्या के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। इस विषय में युक्ति यह है कि जो असुरकुमार पहले उत्पन्न हुए हैं, उन्होंने अपनी उत्पत्ति के समय से ही तीव्र अनुभाव वाले लेश्याद्रव्यों को भोग-भोग कर उनका बहुत भाग क्षीण कर दिया है। अब उनके मन्द अनुभाग वाले अल्प लेश्याद्रव्य ही शेष रहे हैं। इस कारण पूर्वोत्पन्न असुरकुमार अविशुद्धलेश्या वाले होते हैं और पश्चात् उत्पन्न होने वाले इनसे विपरीत होने के कारण विशुद्धतर लेश्या वाले होते हैं / पृथ्वीकायिकों के तिर्यंचपंचेन्द्रियों तक में समाहारादि सप्त प्ररूपरणा-- 1137. पुढविक्काइया प्राहार-कम्म-बण्ण-लेस्साहि जहा णेरइया (सु. 1124-27) / [1137] जैसे (सु. 1124 से 1127 तक में) नैरयिकों के (आहार आदि के) विषय में कहा है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकों के (सम-विषम) आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या के विषय में कहना चाहिए। 1138. पुढविक्काइया णं भंते ! सवे समवेदणा ? हता गोयमा ! सम्वे समवेयणा। से केणठेणं भंते ! एवं वृच्चति ? गोयमा ! पुढविक्काइया सम्वे प्रसण्णी प्रसण्णीमूयं प्रणिययं वेवणं वेदेति, से तेणठेणं गोयमा! पुढविष्काइया सव्ये समवेदणा। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 336 2. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्रांक 336-337 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 4 पृ. 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org