________________ सप्तरहवां लेश्यापर : प्रथम उद्देशक (251 [1138 प्र.] भगवन् ! क्या सभी पृथ्वीकायिक समान वेदना वाले होते हैं ? [1138 उ.] हाँ गौतम ! सभी समान वेदना वाले होते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं ? [उ.] गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी होते हैं। वे प्रसंज्ञीभूत और अनियत वेदना वेदते (अनुभव करते हैं / इस कारण, हे गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक समवेदना वाले हैं / 1139. पुढविक्काइया णं भंते ! सम्वे समकिरिया ? हंता गोयमा ! पुढविक्काइया सम्वे समकिरिया / से केणठेणं? गोयमा ! पुढविक्काइया सव्वे माइमिच्छट्टिी, तेसि यतियानो पंच किरियानो कज्जंति, तं जहा–प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खाणकिरिया 4 मिच्छादसणवत्तिया 5 / [1139 प्र.] भगवन् ! सभी पृथ्वीकायिक समान क्रिया वाले होते हैं ? [1139 उ.] हाँ गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक समक्रिया वाले होते हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक मायी-मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनके नियत (निश्चित) रूप से पांचों क्रियाएँ होती हैं / यथा-(१) प्रारम्भिकी, (2) पारिनहिको, (3) मायाप्रत्यया, (4) अप्रत्याख्यानक्रिया और (5) मिथ्यादर्शनप्रत्यया। (इसी कारण) गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी पृथ्वीकायिक समान क्रियाओं वाले होते हैं / 1140. एवं जाव चरिदिया। [1140] पृथ्वीकायिकों के समान ही अप्कायिकों, तेजस्कायिकों, वायुकायिकों, वनस्पतिकायिकों, द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों यावत् चतुरिन्द्रियों की (समान वेदना और समान क्रिया कहनी चाहिए)। 1141. पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा जेरइया (सु. 1124-30) / णवरं किरियाहिं सम्मद्दिट्ठी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी। तत्थ णं जे ते सम्मट्ठिी ते दुविहा पण्णता, तं जहाअसंजया य संजयासंजया य / तत्थ पं जे ते संजयासंजया तेसि णं तिणि किरियाप्रो कज्जंति, तं जहा-प्रारंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया। तत्थ णं जे ते प्रसंजया तेसि णं चत्तारि किरियाप्रो कति, तं जहा-प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खाणकिरिया 4 / तत्थ णं जे ते मिच्छट्ठिी जे य सम्मामिच्छद्दिट्ठी तेसि णेय इयानो गंच किरियानो कज्जति, तं जहा--प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खाणकिरिया 4 मिच्छादसणवत्तिया 5 / सेसं तं चेव / [1141] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का (पाहारादि सप्तद्वार विषयक कथन) (सू. 1124 से 1130 तक में उक्त) नरयिक जीवों के (पाहारादि विषयक कथन के अनुसार समझना चाहिए)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org