________________ सत्तरहयो लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] [ 249 1133. [1] एवं वण-लेस्साए पुच्छा। तत्थ णं जे ते पुण्योववण्णगा ते णं अविसुद्धवण्णतरागा। तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं विसुद्धवण्णतरागा, से एएणठेणं गोयमा! एवं बुच्चति असुरकुमारा सम्धे णो समवण्णा / [1133-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार क्या सभी समान वर्ण और समान लेश्या बाले हैं ? 1133-1 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त) दो प्रकार के असुरकुमारों में जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे अविशुद्धतर वर्ण वाले हैं तथा उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे विशुद्धतर वर्ण वाले हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी असुरकुमार समान वर्ण वाले नहीं होते। [2] एवं लेस्साए वि। [1133-2] इसी प्रकार लेश्या के विषय में (कहना चाहिए / ) 1134. वेदणाए जहा रइया (सु. 1128) / [1134] (असुरकुमारों की) वेदना के विषय में (सू. 1128 में उक्त) नरयिकों (की वेदनाविषयक प्ररूपणा) के समान (कहना चाहिए।) 1135. अवसेसं जहा णेरइयाणं (सु. 1129-30) / [1135] असुरकुमारों की क्रिया एवं आयु के विषय में शेष सब निरूपण (सू. 1129-1130 में उल्लिखित) नैरयिकों (की क्रिया एवं आयुविषयक निरूपण) के समान (समझना चाहिए / ) 1136. एवं जाव थणियकुमारा। [1136] इसी प्रकार (असुरकुमारों के आहारादि विषयक निरूपण की तरह नागकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक (का निरूपण समझना चाहिए)। विवेचन--प्रसुरकुमारादि भवनपतियों को समाहारादि-प्ररूपणा-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 1131 से 1136 तक) में असुरकुमारादि दस प्रकार के भवनपतिदेवों की आहारादि सप्त द्वारों द्वारा प्ररूपणा की गई है। असुरकुमारों प्रादि का महाशरीर-लघुशरीर-असुरकुमारों का अधिक से अधिक बड़ा शरीर सात हाथ का होता है। भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से यह प्रमाण है। उनके लघुशरीर का जघन्यप्रमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग का समझना चाहिए। उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा उनका महाशरीर उत्कृष्ट एक लाख योजन और लघुशरीर जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार जो असुरकुमार भवधारणीय शरीर की अपेक्षा जितने बड़े शरीर वाले होते हैं, वे उतने ही अधिक पुद्गलों को बाहार के रूप में ग्रहण करते हैं और जितने लघुशरीर वाले हैं, वे उतने ही कम पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं / पूर्वोत्पन्न-पश्चादुत्पन्न असुरकुमारादि कर्म के विषय में नारकों से विपरीत–नारकों के विषय में कहा गया था कि पूर्वोत्पन्न नारक अल्पकर्मा और पश्चादुत्पन्न नारक महाकर्मा होते हैं, किन्तु असुरकुमार जो पूर्वोत्पन्न होते हैं, वे महाकर्मा होते हैं और जो पश्चादुत्पन्न होते हैं, वे अल्पकर्मा होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org