Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सत्तरहवां लेश्यापन / प्रथम उद्देशक [247 निर्जरा कर चुके होते हैं, उनके ये कर्म थोड़े ही शेष रहे होते हैं / इस कारण पूर्वोत्पन्न नारक अल्पकर्म वाले कहे गए हैं। किन्त जो नारक बाद में उत्पन्न हुए हैं, वे महाकर्म वाले होते हैं, क्योंकि उनकी नरकायु, नरकगति तथा असातावेदनीय आदि कर्म थोड़े ही निर्जीर्ण हुए हैं, बहुत-से कर्म अभी शेष हैं / इस कारण वे अपेक्षाकृत महाकर्म वाले हैं। __ यह कथन समान स्थिति वाले नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए, अन्यथा रत्नप्रभापृथ्वी में किसी उत्कृष्ट आयु वाले नारक की आयु का बहुत-सा भाग निर्जीर्ण हो चुका हो, वह सिर्फ एक पल्योपम ही शेष रह गया हो, दूसरी ओर उस समय कोई जघन्य दस हजार वर्षों की स्थिति वाला नारक पश्चात् उत्पन्न हुआ हो तो भी इस पश्चादुत्पन्न नारक की अपेक्षा उक्त पूर्वोत्पन्न नारक भी महान् कर्म वाला ही होता है। ___इसी प्रकार जिन्हें उत्पन्न हुए अपेक्षाकृत अधिक समय व्यतीत हो चुका है वे विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं / नारकों में अप्रशस्त (अशुभ) वर्णनामकर्म के उत्कट अनुभाग का उदय होता है, किन्तु पूर्वोत्पन्न नारकों के उस अशुभ अनुभाग का बहुत-सा भाग निर्जीर्ण हो चुकता है, स्वल्प भाग शेष रहता है। वर्णनामकर्म पुद्गलविपाकी प्रकृति है। अतएव पूर्वोत्पन्न नारक विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं, जब कि पश्चात्पन्न नारक अविशद्धतर वर्ण वाले होते हैं, क्योंकि भव के कारण होने वाले उनके अशुभ नामकर्म का अधिकांश अशुभ तीव्र अनुभाग निर्जीर्ण नहीं होता, सिर्फ थोड़े-से भाग को ही निर्जरा हो पाती है। इस कारण बाद में उत्पन्न नारक अविशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं / यह कथन भी समान स्थिति वाले नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसी प्रकार पूर्वोत्पन्न नारक अप्रशस्त लेश्याद्रव्यों के बहत-से भाग को निर्जीर्ण कर चुकते हैं, इस कारण वे विशुद्धतर लेश्या वाले होते हैं, जबकि पश्चादुत्पन्न नारक अप्रशस्त लेश्याद्रव्यों के अल्पतम भाग की ही निर्जरा कर पाते हैं, उनके बहुत-से अप्रशस्त लेश्याद्रव्य शेष बने रहते हैं।' संजीभत और असंज्ञोभत नारकों की वेदना में अन्तर-जो जीव पहले (अतीत में) संज्ञीपंचेन्द्रिय थे और फिर नरक में उत्पन्न हुए हैं, वे संज्ञीभूत नारक कहलाते हैं और जो उनसे विपरीत हों, वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं / जो नारक संज्ञीभूत होते हैं, वे अपेक्षाकृत महावेदना वाले होते हैं, क्योंकि जो (भूतकाल में) संज्ञी थे, उन्होंने उत्कट अशुभ अध्यवसाय के कारण उत्कट अशुभ कर्मों का बन्ध किया है तथा वे महानारकों में उत्पन्न हुए हैं। इसके विपरीत जो नारक असंज्ञीभूत हैं, वे अल्पतर वेदना वाले होते हैं / असंज्ञी जीव नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में से किसी भी गति का बन्ध कर सकते हैं / अतएव वे नरकायु का बन्ध करके नरक में उत्पन्न होते हैं, किन्तु अति तीव्र अध्यवसाय न होने से रत्नप्रभापृथ्वी के अन्तर्गत अति तीववेदना न हो ऐसे नारकावासों में ही उत्पन्न होते हैं। अथवा संज्ञी का तात्पर्य यहाँ सम्यग्दृष्टि है / संज्ञीभूत अर्थात् सम्यग्दृष्टि नारक पूर्वकृत अशुभ कर्मों के लिए मानसिक दुःख-परिताप का अनुभव करने के कारण अधिक वेदना वाले होते हैं। असंज्ञीभूत (मिथ्यादृष्टि) नारक को ऐसा परिताप नहीं होता, अतएव वह अल्पवेदना वाला होता है। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 333 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 334 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org