Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 246] [ प्रज्ञापनासूत्र महाशरीरादिविशिष्ट नारकों में विसदृशता क्यों ? --जो नारक महाशरीर होते हैं, वे अपने से अल्प शरीर वाले नारकों की अपेक्षा बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, क्योंकि उनका शरीर बड़ा होता है / लोक में यह प्रसिद्ध है कि महान् शरीर वाले हाथी प्रादि अपने से छोटे शरीर वाले खरगोश आदि से अधिक आहार करते हैं / किन्तु यह कथन बाहुल्य की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि कोई-कोई तथाविध मनुष्य के समान बड़े शरीर वाला होकर भी अल्पाहारी होता है और कोई-कोई छोटे शरीर वाला होकर भी अतिभोजी होता है / यहाँ अल्पता और महत्ता भी सापेक्ष समझनी चाहिए। नारक जीव सातावेदनीय के अनुभाव के विपरीत असातावेदनीय का उदय होने से ज्यों-त्यों महाशरीर वाले, अत्यन्त दुःखी एवं तीव्र पाहाराभिलाषा वाले होते हैं, त्यों-त्यों वे बहुत अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं तथा बहुत अधिक पुदगलों को परिणत करते हैं / परिणमन अाहार किये हुए पुद्गलों के अनुसार होता है / यहाँ परिणाम के विषय में प्रश्न न होने पर भी उसका प्रतिपादन कर दिया गया है, क्योंकि वह आहार का कार्य है / इसी प्रकार महाशरीर वाले होने से वे बहुत अधिक पुद्गलों को उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं / जो बड़े शरीर वाले (विशालकाय) होते हैं, वे अपनी जाति के लघुकायों की अपेक्षा बहुत उच्छ्वासनिःश्वास वाले होते हैं तथा दुःखित भी अधिक होते हैं, इसलिए ऐसे तारक दुःखित भी अधिक कहे गए हैं। अाहारादि की कालकृत विषमता-अपेक्षाकृत महाशरीर वाले अपनी अपेक्षा लघुशरीर वालों से शीघ्र और शीघ्रतर तथा पुन: पुन: प्राहार ग्रहण करते देखे जाते हैं / जब आहार बार-बार करते हैं तो उसका परिण मन भी बार-बार करते हैं तथा वे बार-बार उच्छ्वास ग्रहण करते और नि:श्वास छोड़ते हैं / प्राशय यह है कि महाकाय नारक महाशरीर वाले होने से अत्यन्त दुःखित होने के कारण निरन्तर उच्छ्वासादि क्रिया करते रहते हैं / जो नारक अपेक्षाकृत लघुकाय होते हैं, वे महाकाय नारकों को अपेक्षा अल्पतर पुद्गलों का पाहार करते हैं, अल्पतर पुद्गलों को ही परिणत करते हैं तथा अल्पतर पुद्गलों को ही उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं। वे कदाचित् अाहार करते हैं, सदैव नहीं। तात्पर्य यह है कि महाकाय नारकों के आहार का जितना व्यवधानकाल है, उसकी अपेक्षा लघुकाय नारकों के आहार का व्यवधानकाल (अन्तर) अधिक है। कदाचित् आहार करने के कारण वे (अल्पाहारी) उसका परिणमन भी कदाचित् करते हैं, सदा नहीं। इसी प्रकार वे कदाचित उच्छवास लेते हैं और कदाचित ही नि:श्वास छोड़ते हैं। क्योंकि लघुकाय नारक महाकाय नारकों की अपेक्षा अल्प दुःख वाले होने से निरन्तर उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया नहीं करते, किन्तु बीच में व्यवधान डालकर करते हैं / अथवा अपर्याप्तिकाल में अल्पशरीर वाले होने से लोमाहार की अपेक्षा से वे आहार नहीं करते तथा श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति पूर्ण न होने से उच्छवास नहीं लेते; अन्य काल (पर्याप्तिकाल) में प्राहार और उच्छ्वास लेते हैं।' पूर्वोत्पन्न और पश्चादुत्पन्न नारकों में कर्म, वर्ण एवं लेश्या का अन्तर-जो नारक पहले उत्पन्न हो चुके हैं, वे अल्पकर्म वाले होते हैं, क्योंकि पूर्वोत्पन्न नारकों को उत्पन्न हुए अपेक्षाकृत अधिक समय व्यतीत हो चुका है, वे नरकायु, नरकगति और असातावेदनीय आदि कर्मों की बहुत 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 332-333 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org