________________ सत्तरहवां लेश्यापद : प्रथम उद्देशक] [ 245 [उ.] गौतम ! नारक तीन प्रकार के कहे हैं—सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि / उनमें से जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनके चार क्रियाएँ होती हैं। वे इस प्रकार-१. प्रारम्भिकी, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया और 4. अप्रत्याख्यानक्रिया। जो मिथ्या दृष्टि हैं तथा जो सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, उनके नियत (निश्चित रूप से) पांच क्रियाएँ होती हैं-१. आरम्भिको, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया, 4. अप्रत्याख्यानक्रिया और 5. मिथ्यादर्शनप्रत्यया / हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि सभी नारक समान क्रिया वाले नहीं होते / -छठा द्वार // 6 // 1130. रइया णं भंते ! सम्वे समाउया ? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केणठेणं भंते ! एवं उच्चइ ? गोयमा! रइया चउन्धिहा पण्णता, तं जहा-प्रत्यंगइया समाउया समोवषण्णगा 1 प्रत्येगइया समाउया विसमोववण्णगा 2 अत्थेगहया विसमाउया समोववण्णगा 3 प्रत्थेगइया विसमाउया विसभोववण्णगा 4, से एएणठेणं गोयमा ! एवं सचइ रइया णो सवे समाउया णो सम्वे समोववण्णमा 7. [1130 प्र.] भगवन् ! क्या सभी नारक समान आयुष्य वाले हैं ? [1130 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि सभी नारक समान आयु वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नैरयिक चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-१. कई नारक समान आयु वाले और समान (एक साथ) उत्पत्ति वाले होते हैं, 2. कई समान अायु वाले, किन्तु विषम उत्पत्ति (आगे-पोछे उत्पन्न होने वाले होते हैं, 3. कई-कई विषम (असमान) आयु वाले और (एकसाथ) उत्पत्ति वाले होते हैं तथा 4. कई विषम आयु वाले और विषम ही उत्पत्ति वाले होते हैं / इस कारण से हे गौतम ! सभो नारक न तो समान आयु वाले होते हैं और न ही समान उत्पत्ति (एक साथ उत्पन्न होने वाले होते हैं / __ --सप्तम द्वार / / 7 / / विवेचन-नैरयिकों में समाहारादि सप्त द्वारों को प्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों में नैरयिकों में आहार आदि पूर्वोक्त सात द्वारों से सम्बन्धित समानता-असमानता की चर्चा की गई है। महाशरीर-अल्पशरीर—जिन नारकों का शरीर अपेक्षाकृत विशाल होता है, वे महाशरीर और जिनका शरीर अपेक्षाकृत छोटा होता है, वे अल्पशरीर कहलाते हैं। नारक जीव का शरीर छोटे से छोटा (जघन्य) अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण होता है और बड़े से बड़ा (उत्कृष्ट) शरीर पांच सौ धनुष का होता है। यह प्रमाण भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से है, उत्तरवैक्रिय शरीर की अपेक्षा से जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक हजार धनुष-प्रमाण होता है। शंका-समाधान-नारकों की प्राहारसम्बन्धी विषमता पहले न बतलाकर पहले शरीरसम्बन्धी विषमता क्यों बतलाई गई है ? इसका कारण यह है कि शरीरों की विषमता बतला देने पर आहार, उच्छ्वास प्रादि की विषमता शीघ्र समझ में आ जाती है / इस आशय से दूसरे स्थान में प्रतिपाद्य शरीर-सम्बन्धी प्रश्न का समाधान पहले किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org